...

21 views

अमरबेल
अमरबेल ने बड़े चाव से
बड़े पेड़ को गले लगाया
गले लगाकर बढ़ते बढ़ते
फैल गयी वो सकल वृक्ष पर

पेड़ बेचारा था मतिमारा
उसे बेल से प्रेम बहुत था
इसी प्रेम में अंधे उसको
बेल के सब बंधन भाते थे
दोनों इस पर इतराते थे।

बेल मगर बढ़ने की सीमा
से बिल्कुल ही अंजानी थी
मन का मनका फेर रही थी
पात पात को घेर रही थी
ऐसी छायी ऐसी छायी
पेड़ कहीं दिखता तक ना था
क्या ख़ुद पर उसका हक़ ना था!

यही समय था पेड़ ज़रा सा
अगर बेल को समझा लेता
जीवन की ख़ुशियाँ पा लेता
लेकिन भाई चूक गया वो
देखत देखत सूख गया वो
धीरे धीरे हरे झाग से
पत्ते पीले बड़ गये सारे
बिना हवा के बिना धूप के
बदल रहे थे सभी नज़ारे

बेल मगर ये तक ना जानी
अंतर्मन को छील रही थी
उसका होना लील रही थी
पेड़ शीघ्र मरने वाला था
जीवन-धन हरने वाला था
हाय पराये घावों को
अपनी रग से सीने वालों का
ऐसा दु:खद अंत होता है
बंधन में जीने वालों का।

डॉ.पूनम यादव 🙏💐

© 🍂