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"बूँद का सफ़र"

• बूँद का सफ़र •

खूबसूरत पहाड़ियों के पीछे दूर कहीं अस्त होते सूर्य ने आसमान को सिंदूरी रंग से रंग दिया था। नैनीताल की ढलती शाम की सुनहरी रोशनी में सारी वादी नहा उठी थी। तीनों और पहाड़ियों से घिरी नैनी झील, आसमान की सिंदूरी छटा को अपनी आगोश में समेटने को व्याकुल प्रतीत हो रही थी। कितनी ही नौकाएं झील में हंसों की तरह यहाँ-वहाँ तैर रही थी, और नव-विवाहित जोड़े एक दूसरे की बाहों में बाहें डाले, प्रेम से ओत-प्रोत झील में नौका विहार का आनंद उठा रहे थे।

इस ढलती सिंदूरी शाम में प्रीति अकेली ही नैनी झील किनारे पत्थर की एक सीढ़ी पर बैठी थी। पिछले हफ़्ते ही प्रीति अनुज के साथ विवाह की पवित्र डोर में बंधी थी, और विवाह के उपरान्त वह अपने पति अनुज के साथ नैनीताल आयी हुई थी।

अनुज एक जानी-मानी होटल इंडस्ट्री में अच्छे ओहदे पर था। उसकी कम्पनी की होटल चैन के तहत उनका एक होटल यहाँ नैनी झील पर था। अनुज प्रीति के साथ अपनी कम्पनी के ही होटल में ठहरा था।

अनुज ने प्रीति को बताया कि कम्पनी का एक और होटल प्रोजेक्ट भीमताल में चल रहा है, और कम्पनी ने उस होटल प्रोजेक्ट के शुरुआती कामकाज की देखभाल के लिए उसे यहाँ भेजा है। इस तरह कम्पनी का काम भी हर्ज़ नहीं होगा, और कम्पनी की ओर से हमारा पोस्ट-वेडिंग टूर भी हो जाएगा।

वह सवेरे ही "प्रोजेक्ट पर जा रहा है" कहके भीमताल चला जाता, और शाम ढले ही वापस आता। बीच - बीच में वह प्रीति को फ़ोन करके उसके हाल - चाल पूछ लेता, और "जल्दी आता हूँ" कहके उसे वहीं घूमने-फिरने की सलाह देता। पिछले तीन दिनों से यही सिलसिला चल रहा था, और इन तीन दिनों में प्रीति को अनुज का एक दिन भी साथ नहीं मिला था।

झील किनारे अकेली गुमसुम बैठी प्रीति, नौका विहार का आनंद उठाते नव-विवाहित जोड़ों को देख रही थी। उन जोड़ों को देख जैसे ही उसके चेहरे पर खुशी छलकती, वैसे ही ख़ुद के लिए उसके दिल में कहीं अकेलापन और तकलीफ़ मचल उठती। उसकी आँखों में झील जैसा ही नीर किनारों को तोड़ बाहर बहने को आतुर हो रहा था। लाख कोशिशों के बावजूद भी उसकी आखों से आँसू बह निकले। आँसुओं की मोटी-मोटी बूँदें कपोलों से लुड़कते हुए झील के पानी में जा गिरीं। झील के उस अथाह जल पर आँसुओं की उन दो नन्ही बूँदों के गिरने का जैसे कोई फ़र्क ही न पड़ा था। आँसुओं के गिरने की न कोई आवाज़, न पानी में कोई हलचल और न ही लहरों पर कोई असर। उसके गले में एक टीस उठती चली गयी, और चाहकर भी वह अपनी सिसकियों पर काबू नहीं पा सकी। उस समय उसे लगा कि उसके आँसुओं का जैसे किसी के लिए कोई महत्त्व ही नहीं है।

लेकिन जैसा वह सोच रही थी वैसा नहीं था, वे दो नन्ही आँसुओं की बूँदें जैसे ही नैनी झील के उस अथाह जल में गिरीं, वैसे ही सूक्ष्म स्तर पर मानों जल में एक बड़ा विस्फोट हुआ हो! जल में गिरते ही वे दो नन्ही आँसुओं की बूँदें अरबों-खरबों अणुओं में टूट गईं। आँसुओं के वे ढ़ेरों अणु झील के उस अथाह जल में उपस्थित बेहिसाब अणुओं के साथ मिलकर, दूर तक वृताकार रूप में फैलते चले गए। झील का सारा जल प्रेम और पीड़ा से ओत-प्रोत हो उठा, जल का एक-एक अणु कंपित और ऊर्जावान होता चला गया। भीतर से सारा जल अणुओं की बढ़ती ऊर्जा से जैसे रोशन हो उठा हो! झील के उस अथाह जल के भीतर सूक्ष्म स्तर पर होती अणुओं की उस महान प्रतिक्रिया का जल के बाहर किसी को एहसास तक न हुआ।

अगली सुबह अपनी सुनहरी किरणें बिखेरता सूर्य धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था। भोर के साथ पक्षियों का तीव्र गति से पंख फड़फड़ाते हुए इधर-उधर उड़ना, उनमें अलग ही उत्साह दिखा रहा था। नैनी झील की सतह पर सूर्य की अरबों किरणें थिरकती हुई मानों नृत्य कर रही थीं। झील की सतह पर किरणों के टकराने से सारा जल उत्साहित और ऊर्जावान होता जा रहा था। जल के अणु तेजी के साथ एक दूसरे की परिक्रमा करते हुए सतह से ऊपर उठने की कोशिश कर रहे थे। सूर्य की किरणों के मिलन से आँसुओं के उन अरबों-खरबों नन्हें-नन्हें अणुओं ने खुद को बहुत ही हलका महसूस किया। उन अणुओं ने पाया कि अब वे झील के गहरे अंधकार में नहीं थे और न ही वे अकेले थे। आकाशगंगा के सितारों से भी अधिक अणु अब उन अणुओं के साथ मिलकर आसमान की ओर उठ रहे थे। जल अणुओं की इस प्रक्रिया से झील की सतह पर धुँध की एक मोटी चादर-सी बिछ गई थी जो धीरे-धीरे आसमान की ऊँचाईयों में जाती हुई बादलों का रूप ले रही थी। इस तरह जल अणुओं का वाष्प में परिवर्तित होकर आसमानी सफ़र पर निकलने का यह सिलसिला लगातार जारी था।

दोपहर के दो बज गए थे। उधर भीमताल पर चल रहे प्रोजेक्ट पर अनुज ने देखा आसमान में घने बादल छाने लगे हैं। शायद बारिश हो सकती थी और वैसे भी पहाड़ों का मौसम बड़ा ही चंचल होता है, कब बारिश हो जाए कुछ पता नहीं चलता। अनुज ने आसमान की ओर मुँह उठाकर घुमड़ते बादलों को देखा। तभी दो नन्हीं बूँदें उसके चेहरे से आ टकराईं। अनुज को भीतर तक किसी अपने की आह महसूस हुई। उसी क्षण अनुज को प्रीति का ख्याल आया। उसके हृदय के किसी कोने से आवाज़ आयी कि वह क्या कर रहा है? प्रीति को अकेला छोड़ आख़िर वह कैसे रह सकता है? इतने दिन हो गए उसने एक बार भी नहीं सोचा कि वह अकेली यहाँ किस हाल में रह रही होगी? काम को लेकर उसने प्रीति की ज़रा भी परवाह नहीं की। क्या गुज़र रही होगी उसके नन्हें से हृदय पर? लेकिन प्रीति? प्रीति ने भी तो उससे एक बार भी इस बात की शिकायत नहीं की?

अब अनुज ने ठान लिया कि वह प्रीति को अकेला नहीं छोड़ेगा, और जिन ख़ुशी के पलों की वह हक़दार है हर कीमत पर वे खुशियाँ वह उसको देगा। इसी सोच के साथ उसने ड्राइवर से वापस होटल चलने को कहा। अभी उनकी कार वहाँ से चली ही थी कि धीमी बरसात शुरू हो गई। भीमताल से लेकर नैनी झील तक सारी वादी का मौसम आशिक़ाना हो उठा था। होटल पहुँचते-पहुँचते बारिश तेज हो चुकी थी।

जब अनुज अपने रूम में पहुँचा तो प्रीती के चेहरे पर हमेशा की तरह वही फ़ीकी-सी मुस्कान थी। हर बार प्रीति की इस मुस्कान के बदले अनुज अपने काम का हवाला देता था। लेकिन इस बार अनुज ने ऐसा कुछ नहीं कहा। उसने प्रीति के चेहरे को ध्यान से देखा। अनुज के काम को लेकर प्रीति के चेहरे पर ज़रा भी शिकायत के भाव नहीं थे। अगर थी तो एक हल्की-सी कसक जिसे अपने भीतर ही रोके रखने का उसने भरकस प्रयास कर रखा था।

“प्रीति!” अनुज ने प्रीति का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “किस मिट्टी की बनी हो तुम?”

प्रीति ने हैरानी से अनुज को देखा।

“तुमने एक बार भी मेरे काम को लेकर शिकायत नहीं की?” अनुज ने पूछा।

“मैं आपके और काम के बीच नहीं आना चाहती!” प्रीति ने धीरे से ज़वाब दिया।

“अपने हक़ के लिए भी नहीं?” अनुज ने मुस्कराते हुए पूछा।

प्रीति ने नहीं में अपना सिर हिला दिया।

“बुद्धू” अनुज ने कहते हुए प्रीति को अपने सीने से लगा लिया। उस पल प्रीति को लगा जैसे कुदरत ने उसकी सारी खुशियाँ वापस उसकी झोली में डाल दी हों।

तभी बिजली की ज़ोरदार गड़गड़ाहट से सारा नैनीताल काँप उठा। अनुज ने प्रीति का हाथ पकड़ा और उसे टेरेस पर ले आया। टेरेस से लैक व्यू बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रहा था। झील किनारे कितने ही नव-विवाहित युगल बारिश में भीगने का आनंद उठा रहे थे। बारिश ने सारी वादी को और भी हसीन रूप दे दिया था। तेज बरसती बारिश की बूँदें टूट- टूटकर झील के जल में ख़ुद को विलीन कर रही थीं। बारिश की वे बूँदें जल संग अपना मधुर-मिलन पाकर, उल्लास से उछलती हुईं अपनी खुशी ऐसे ज़ाहिर कर रहीं थीं, मानों वे सदियों बाद अपने प्रियतम से मिल रही हों!

“प्रीति!” अनुज ने प्रीति के चाँद से चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेते हुए कहा, “यदि गलती से मैंने तुम्हारा दिल दुखाया हो, तो मेरी पहली और बचकानी मोहब्बत समझकर मुझे माफ़ कर देना। आगे फिर कभी शिक़ायत का मौका नहीं दूँगा!”

कहकर अनुज ने प्रीति के माथे पर प्रीत का एक नर्म चुंबन अंकित करते हुए उसे अपनी प्रेम भरी बाहों में समेट लिया।

टेरेस पर खड़े अनुज और प्रीति एक दूसरे की बाहों में घिरे हुए, झील की सुंदरता को निहारते हुए भीग रहे थे। उस समय अनुज को बारिश में भीगना अच्छा लग रहा था। और प्रीति के शरीर का रोंआँ-रोंआँ प्रेम की पीड़ा से भाव-विभोर हो उठा था। हृदय की प्रसन्नता उसकी आँखों से आँसुओं के रूप में बरस पड़ी। आँसुओं की बूँदें बारिश की बूँदों के साथ विलीन हो रही थीं। प्रीति को इस बारिश की बूँदों से कुछ ख़ास ही रिश्ता महसूस हो रहा था। उसके चेहरे और बदन से टकराती बारिश की बूँदें, उसे निहायत ही अपनेपन का एहसास करा रही थीं, जैसे ये बूँदें उसके ही जिस्म का एक अभिन्न अंग हों।

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ASHOK HARENDRA
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