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भोजन से आरोग्य भाग-1
(1) पवित्रता
‘धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्’
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-प्राप्ति में श्रेष्ठ मूलकारण शरीर का नीरोग होना ही है। कहा भी गया है-पहला सुख निरोगी काया। दूसरी बात- जान है तो जहान् है। रोगी व्यक्ति चारपाई में पड़े-पड़े अकेले ही पीड़ा सहने और कहराने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। खुद उसके परिवार के लोग भी उसकी उपेक्षा करने लगते हैं। अतः दोस्तों स्वास्थ्य रक्षा हमारा प्रथम कर्त्तव्य बनता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। अपने आपको स्वस्थ रखने के लिए आयुर्वेद में प्रमुख रूप से आहार, विहार और सदवृत्त-ये तीन कहे हैं। इनका सही ढंग से पालन कर व्यक्ति निरोग रह सकता है।
तो आइए इस लेख में हम सर्वप्रथम आहार पर चर्चा करते हैं। हमारा आहार कैसा हो, आहार-सम्बन्धी नियम आदि।

1) पवित्रता- पवित्र भाव से भोजन करना चाहिए। स्नान तथा पूजादि से शरीर और मन की पवित्रता बढ़ती है। अतः स्नान के पश्चात भगवान का स्मरण करके भोजन करना चाहिए। इसीलिए शास्त्र में कहा है- नीरोग शरीर होने पर बिना स्नान किए खाने से मल-भोजन और बिना भगवान की पूजादि किये खाने से पूय-शोणित भोजन का दोष होता है।
आर्यशास्त्र में अन्यान्य यज्ञों की तरह भोजन-व्यापार को भी नित्ययज्ञ के यज्ञेश्वर भगवान वैश्वानर (जठराग्नि) कहे गये हैं। श्रीभगवान जठराग्नि रूप से प्रत्येक प्राणी में बैठकर प्राण और अपान वायु की सहकारिता से चर्व्य, चोष्य, लेह्य तथा पेय-इन चार प्रकार के भोज्य अन्नों को भक्षण करते हैं। अन्ततः आर्यभोजन से केवल उदरपूर्ति ही नहीं होती, अपितु श्रीभगवान की पूजा भी होती है। इसीलिए भी भोजन की पवित्रता पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है।
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