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नौ का पहाड़ा
"चलो उठो, चार बज गए। कितनी बार कहा है शाम में इतनी देर भी ना सोया करो की रात में नींद ना आए।"
मैंने आंखे खोली तो देखा मां हाथ में एक कॉपी और पेंसिल लिए खड़ी है। आज तो मुझे 9 का पहाड़ा याद करके लिखना था पर टॉम एंड जेरी से फुर्सत ही नहीं मिली तो अब मां को क्या बोलूं?
मां का ध्यान भटकाने के लिए मै उठी और गर्दन में हाथ डालते हुए कहा- "मां पहले झूला।"
मुझे उम्मीद थी कि मेरी मासूमियत पर पिघल कर शायद मां पहाड़ा भूल जाएंगी और झूले के बाद थोड़ा खेलने के बहाने आज मां को बहला दिया जाएगा।
पर शायद मै भूल गई थी कि चार साल की तो मै थी मां नहीं।
मां ने भी बड़े प्यार से मुझे गोदी में उठाया और सीधा मुझे मेरी लाल कुर्सी-टेबल पर बिठा दिया और बोली- "पहले पहाड़ा फिर झूला।"
कॉपी पर बने चौकोर डब्बो को देख मेरा सिर घूमने लगा। गणित से मेरी कुछ ख़ास बनती नहीं, बचपन में भी नहीं बनती थी।
फिर किसी तरह पेंसिल उठाया और लिखा
9×1=9
बस अब इसके आगे तो कुछ आता नहीं था तो फिर 9×2 लिखा फिर मां की तरफ देखा और कहा- "मां! भूख।" अब भला संसार की कौन सी माता इतनी कठोर होगी जो अपनी चार साल की बच्ची को भूखा रखेगी वो भी 9 के पहाड़ा के पीछे। मां किचन गई और वहां से कुछ खाने के लिए लाई। अभी टेबल के पास पहुंची ही थी कि उनकी नज़र मेरी पेंसिल की तरफ गई जिसकी नोक टूटी हुई थी। फिर मैंने थोड़ी मासूम शक्ल बनाते हुए कहा, "मां! टूत गया।"
उन्होंने फिर एक नज़र मेरी तरफ देखा, कटोरी मेरी टेबल पर रखी और मेरी बॉक्स से शापनर लाने चली गई। अब मेरी बॉक्स में नज़र डालते ही मां को वही दिखा होगा जो शायद यशोदा को कान्हा के मुंह खोलने पर दिखा था। सभी चार साल के अनुशासित बच्चों की तरह मेरे बॉक्स में आपको शापनार और स्केल छोड़ कर कागज़ के टुकड़े, पेंसिल के छिलके, आधी खाई चॉकलेट, 5 रंगो वाली कलम, ब्लेड, काठी....जी हां काठी भी मिली थी मेरी बॉक्स में।
अब बस इतना काफी था मां का पारा चढ़ने के लिए। वो भी समझ चुकी थी आज तो मै 9 का पहाड़ा लिखने से रही। बस मेरी तरफ देखा और कहा, " आने दो पापा को"
ये चार शब्द मेरे जीवन के सबसे भयावह शब्द थे। अब मै निशस्त्र हो चुकी थी। पापा को ना मेरी चेहरे कि मासूमियत दिखेगी ना बातों का तोतलापन। पापा तो सीधा सज़ा सुना देंगे, 1 हफ्ते तक टीवी बंद और 2 हफ्ते तक झूला बंद।
पापा के आने तक मै मन ही मन अपनी सज़ा सुन भी चुकी थी और उसे स्वीकार भी कर चुकी थी।
पर रात में जब पापा ने सुनाया तो सज़ा कुछ और ही थी। ना झूला बंद हुआ था ना टीवी बल्कि एक नई चीज़ की शुरुआत होने वाली थी- "स्कूल"। पहली बार सुनने में जगह उतनी भी बुरी नहीं लगी। मैंने भी सोचा टीवी और झूला बंद होने से तो अच्छा ये 2-4 घंटे का स्कूल ही होगा। दीदी भी तो जाती है, खुश ही लगती है वहां से आकर। बस फिर क्या था अगले दिन ही मेरे गले में वॉटरबॉटल और कंधे पर बसता चड़ा दिया गया जिसका बोझ मै 15 साल बाद भी उठा रही हूं फर्क बस इतना है कि स्कूल अब 2 घंटे का नहीं रह गया और 9 का पहाड़ा लिखने से तो अब कहीं ऊपर उठ चुकी हूं मै। आज भी जब पढ़ाई मुश्किल लगती है तो सोचती हूं अगर उस दिन 9 का पहाड़ा सही-सही लिख दिया होता तो शायद ये दिन नहीं देखना पड़ता।

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