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बंधन
घर में रहे इतने दिन हो गए थे कि उसे खुद भी पता न था। बचपन में अक्सर लोग उसे इधर उधर घुमाया करते थे। आपको भी लोगो ने घुमाया होगा। कभी पिता के कंधे पर तो कभी मां की उंगली थामे इस बाहरी दुनिया की चकाचौंध देखी होगी। पर उस समय इतनी समझ कहां थी। बचपन में खुद से अक्सर वो कई बार कहती -" बड़े होने पर में अकेले बाहर जाऊंगी।"

अब जब समझ है तो न जाने क्यों एक बंदिश सी महसूस होने लगी है। बाहर जाने पर कोई रोक टोक तो नहीं है पर सवाल बहुत हैं। जैसे - कहां?, क्यूं?, ज्यादा जरूरी है क्या? घर बैठे न हो सकता काम? और न जाने क्या - क्या। इतने सवालों के जवाब देने से बढ़िया तो घर पर रहना ही पसंद करती।

कहीं भी जाओ तो किसी को साथ लेकर जाओ। कभी कभी तो लगता कि वो कोई इंसान नहीं बल्कि कोई निर्जीव वस्तु है जिसे हमेशा किसी अन्य कि जरूरत पड़े एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए।

कहीं अगर स्कूल कॉलेज से जल्दी छुट्टी हो भी जाए तो कदम हमेशा घर की ओर ही बड़ते। मन की बात मन में रह जाती। घुमु या न घुमू? सोचते - सोचते कब घर आ जाता पता न चलता। ये बनदिश तो किसी ने न लगाई पर क्यों खुद को खुद ने ही बांध दिया?

© Amitra