अवाबाई वाडिया,
1940 के दशक के अंत में जब परिवार नियोजन दुनिया भर में एक ऐसा विषय था, जिसपर बात तक करना एक अपराध की तरह माना जाता था, उस समय पद्म श्री अवाबाई वाडिया ने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया।
दुनियाभर में काफी लंबे समय से एक बड़ी चिंता और चर्चा का विषय रही है, ‘आबादी’। भारत और दुनिया के अन्य देशों में बढ़ती आबादी को रोकने के लिए कई बार ठोस कदम उठाने की कोशिश की गई। साथ ही भारत के इतिहास में भी कई ऐसे लोग हुए, जिन्होंने इस क्षेत्र में काम किया। उन्हीं नामों में एक नाम शामिल है, ‘पद्म श्री अवाबाई वाडिया’ का।
18 सितंबर 1913 को कोलंबो के एक प्रगतिशील पारसी परिवार में जन्मीं अवाबाई वाडिया के पिता दोशबजी मुंचेरजी एक शिपिंग अधिकारी थे और उनकी माँ पिरोजबाई अर्सेवाला मेहता गृहिणी थीं। 19 साल की उम्र में अवाबाई वाडिया यूनाइटेड किंगडम में ‘बार परीक्षा’ पास करने वाली सीलोन (अब श्रीलंका) की पहली महिला बनीं। उनकी सफलता ने सीलोन सरकार को महिलाओं को देश में कानून की पढ़ाई करने की अनुमति देने के लिए मजबूर कर दिया।
यह अकेला मौका नहीं था, जब वाडिया ने महिलाओं के अधिकारों पर सरकारी नीतियों को बढ़ावा दिया। वकालत की डिग्री हासिल करने के बाद, उन्होंने लैंगिक भेदभाव के बावजूद लंदन और कोलंबो दोनों जगहों पर काम किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वह बॉम्बे (अब मुंबई) आ गईं और खुद को सामाजिक कार्यों में लगा दिया, लेकिन उनके काम को असली पहचान तब मिली, जब...
दुनियाभर में काफी लंबे समय से एक बड़ी चिंता और चर्चा का विषय रही है, ‘आबादी’। भारत और दुनिया के अन्य देशों में बढ़ती आबादी को रोकने के लिए कई बार ठोस कदम उठाने की कोशिश की गई। साथ ही भारत के इतिहास में भी कई ऐसे लोग हुए, जिन्होंने इस क्षेत्र में काम किया। उन्हीं नामों में एक नाम शामिल है, ‘पद्म श्री अवाबाई वाडिया’ का।
18 सितंबर 1913 को कोलंबो के एक प्रगतिशील पारसी परिवार में जन्मीं अवाबाई वाडिया के पिता दोशबजी मुंचेरजी एक शिपिंग अधिकारी थे और उनकी माँ पिरोजबाई अर्सेवाला मेहता गृहिणी थीं। 19 साल की उम्र में अवाबाई वाडिया यूनाइटेड किंगडम में ‘बार परीक्षा’ पास करने वाली सीलोन (अब श्रीलंका) की पहली महिला बनीं। उनकी सफलता ने सीलोन सरकार को महिलाओं को देश में कानून की पढ़ाई करने की अनुमति देने के लिए मजबूर कर दिया।
यह अकेला मौका नहीं था, जब वाडिया ने महिलाओं के अधिकारों पर सरकारी नीतियों को बढ़ावा दिया। वकालत की डिग्री हासिल करने के बाद, उन्होंने लैंगिक भेदभाव के बावजूद लंदन और कोलंबो दोनों जगहों पर काम किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वह बॉम्बे (अब मुंबई) आ गईं और खुद को सामाजिक कार्यों में लगा दिया, लेकिन उनके काम को असली पहचान तब मिली, जब...