भगवान् का प्रसाद
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*भगवान् का प्रसाद - एक वैज्ञानिक दृष्टि*
एक बार, मैंने सुबह टीवी खोला तो... *जगत गुरु शंकराचार्य जी, कांची कामकोटि पीठ* से प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था।
एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं ?
हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं उसमें से भगवान क्या खाते हैं। क्या पीते हैं,?
क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है.?
यदि नहीं, तो हम यह कर्म क्यों करते हैं।
क्या यह पाखंड नहीं है ।
यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें ?...
मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि शायद प्रश्नकर्ता ने आज जगद्गुरु शंकराचार्य जी को बुरी तरह घेर लिया है देखूं क्या उत्तर देते हैं।
किंतु जगद्गुरु शंकराचार्य जी *तनिक भी विचलित नहीं हुए* । बड़े ही शांत चित्त से उन्होंने उत्तर देना शुरू किया।
उन्होंने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं.?
मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है..?
तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है।
फिर वह पूछता है कि किसका है.?
तब आप कहते हैं कि यह मेरा है।
*फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं।*
तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि ...यह क्या है .?
तब आप कहते हैं कि *यह प्रसाद है*
फिर वह पूछता है कि किसका है.?
तब आप कहते हैं कि यह हनुमान जी का है ।
*अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है। उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया*.? वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के ममत्व या अहंकार को हर लिया
*यह मेरा है* का जो भाव था , अहंकार था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया ।
प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत और नम्र स्वभाव का बनता है शीलवान होता है । अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है । इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है ।
*यह एक विज्ञान है, जिसे… मनो विज्ञान* कहते है ।
इतना सुन्दर उत्तर सुन कर मैं भाव विह्वल हो गया । *कोटि-कोटि नमन है देश के संतों को जो हमें अज्ञानता से दूर ले जाते हैं और हमें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं ।
*भगवान् का प्रसाद - एक वैज्ञानिक दृष्टि*
एक बार, मैंने सुबह टीवी खोला तो... *जगत गुरु शंकराचार्य जी, कांची कामकोटि पीठ* से प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था।
एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं ?
हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं उसमें से भगवान क्या खाते हैं। क्या पीते हैं,?
क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है.?
यदि नहीं, तो हम यह कर्म क्यों करते हैं।
क्या यह पाखंड नहीं है ।
यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें ?...
मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि शायद प्रश्नकर्ता ने आज जगद्गुरु शंकराचार्य जी को बुरी तरह घेर लिया है देखूं क्या उत्तर देते हैं।
किंतु जगद्गुरु शंकराचार्य जी *तनिक भी विचलित नहीं हुए* । बड़े ही शांत चित्त से उन्होंने उत्तर देना शुरू किया।
उन्होंने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं.?
मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है..?
तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है।
फिर वह पूछता है कि किसका है.?
तब आप कहते हैं कि यह मेरा है।
*फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं।*
तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि ...यह क्या है .?
तब आप कहते हैं कि *यह प्रसाद है*
फिर वह पूछता है कि किसका है.?
तब आप कहते हैं कि यह हनुमान जी का है ।
*अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है। उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया*.? वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के ममत्व या अहंकार को हर लिया
*यह मेरा है* का जो भाव था , अहंकार था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया ।
प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत और नम्र स्वभाव का बनता है शीलवान होता है । अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है । इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है ।
*यह एक विज्ञान है, जिसे… मनो विज्ञान* कहते है ।
इतना सुन्दर उत्तर सुन कर मैं भाव विह्वल हो गया । *कोटि-कोटि नमन है देश के संतों को जो हमें अज्ञानता से दूर ले जाते हैं और हमें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं ।