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तुम्हारी शख्सियत तसलीम हो जाए, तो हर्ज क्या है
तुम्हें कुछ पल तुमसे चुरा ले, तो हर्ज ही क्या है।।

पढो़ हमें तो अल्फाज़ गर उतरते लगे दिल में तेरे
ज़रा दिल खाली बा-वजह कर लो, तो हर्ज ही क्या है।।

तुम्हें श्मस कहें, चाँद कहें या स्याह का जुगनू कोई
यो फ़लक पर बैठा तके तुम्हें, तो हर्ज ही क्या है।।

तुम मारिची रेत सी, नाज़नी रजनीगंधा रात की
महक तेरी घर मेरी आ जाए, तो हर्ज ही क्या है।।

नहीं मिलन हो ना सही, पर्दा हो जाओ तो गम नहीं
चंद लफ्जो़ में कैफियत पूछ लो, तो हर्ज ही क्या है।।

ना रखो कोई राब्ता हमसे, ना शामिल करो खुशी में कोई
गम में दो आँसू हम पर ही छलका दो, तो हर्ज ही क्या है।।

दिल से बाँधा है तुम्हें, ये एक इश्क़ का नाम ही तो नहीं
कुछ गाँठ बाँध थाम लो हमको तुम भी, तो हर्ज ही क्या है