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माया की कमाई
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घनघोर उदासी ,कब की बासी
रंग की भूखी ,नूर की प्यासी
एक आह लिए एक चाह लिए
दूर तलक आंखों के शाखोँ में लिपटी है
जैसे काला नाग एक, विक्राल विषधर
क्रोध से फुफकारता जीवन के राह पर
और पीछे मेरे खाई अपार , दाएं बाएं ऊंची दीवार
बोलो मेरा अब शेष जीवन कितना ???
आगे चार कदम पीछे चार कदम
शायद इससे भी थोड़ा कम
उपर से ये नाग की स्थिरता जानें कब आवेश में आ जाए
अपने रहनुमा अपने मालिक के शक्त आदेश में आ जाए
हाय ! आगे बढूं, या पीछे बढूं
दोनों तरफ काल है, अब क्या करूं
किससे पूछूं _युक्ति उपाय
क्या यही है जीवन का अन्तिम अध्याय ??
सांसें तेज़ है पसीने से लथपथ शरीर
मन हृदय को बांधे खड़ा है मेरे आगे पीछे भय का शक्त जंजीर
हाय ! माया निकला वो स्वर्णिम हिरण
जिसके पीछे भागते - भागते काट दिया पूरा जीवन
यौवन की ओर पहला कदम बढ़ाते ही
एक छोटी प्यारी चितचोर हिरन का रूप मन को लुभाया था
फिर उसे पाने की लालसा में भागते - भागते मध्यम यौवन तक आया था
उसे पकड़कर जैसे ही चूमकारना चाहा वैसे ही
इस हिरण से भी थोड़ा और बड़ा ,_और आकर्षक ,
इससे भी गहरा स्वर्ण रंग से भरा और मनमोहक
एक हिरण के सौंदर्य ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा
फिर उसे भी पाने की जगी मन में जोड़ की इच्छा
और पहली को एक बड़े पिंजड़े में डालकर बिना विश्राम किए
मन के कभी न मिटने वाली लालच को बिना विराम दिए
फूलती सांस ही बेतहाशा भागा उस हिरण की ओर
दिन रैन का अंतर - भेद भूलकर ,नींद चैन सब पिछे छोड़
कई सालों तक उसके पिछे भागता रहा ....
हर मुसीबत बाधा का पर्वत लांगता रहा
अंत में अपना परिश्रम पाया
वो हिरण रूपी अरमान मेरे हाथ आया
यों ही एक से बढ़कर एक सौंदर्य से परिपूर्ण हिरण
रिझाती रही और भगाती रही मन और नयन ...
मोह लालच में अंधा होकर , रिश्ता नाता नींद चैन सब खोकर
मैं भागता भागता यहां तक आ पहुंचा ।
यहां आते ही अचानक से वो हिरण विक्राल विषधर काला नाग में गई बदल
और पीछे का रस्ता दूर तक विशाल गहरी खाई में गया ढल
अब आगे विक्राल विषधर है
पीछे विशाल खाई ...
यही है जीवन भर का मेरा मेहनताना
यही है माया की कमाई ....
_© राजीव
© Rajeev Ranjan