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इतिहास के पन्नों से,
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कला और साहित्य की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारियों और आंदोलनकारियों के साथ कवियों और लेखकों ने भी अहम योगदान दिया। लेकिन कई ऐसे कवि और कविताएं रहीं, जिनसे डरकर अग्रेंज़ों ने उन पर पाबंदी लगा दी,

15 अगस्त 1947 को हमें ब्रिटिश शासन के 200 सालों के राज से आज़ादी मिली थी। भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास अनेक नायकों और वीर योद्धाओं की कहानियों से भरा हुआ है, जिनकी वीरता, साहस, त्याग और बलिदान ने भारत को आज़ादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारियों और आंदोलनकारियों के साथ, कवियों और लेखकों ने भी अहम योगदान दिया। ये लेखक और कवि ही थे, जिनकी लिखी आजादी की कविताएं, जनता में देशभक्ति की लौ जलाने का ज़रिया बनीं।

देशभक्ति की भावना जगाने वाली कविताएं और साहित्य, ब्रिटिश हुकूमत के लिए खतरे की घंटी थी। उन्हें अंदेशा होने लगा था कि ऐसी कविताओं और गीतों का लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। उन्हें डर था कि राष्ट्र प्रेम से भरी ऐसी रचनाएं लोगों को एकजुट कर उनके खिलाफ कर सकती हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर, जोश मलिहाबादी, मुहम्मद इकबाल, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, मोहम्मद अली जौहर और काजी नजरूल इस्लाम जैसे कवियों और लेखकों की रचनाएं आज भी हमारे दिल में एक नया जोश भर देती हैं। लेकिन ऐसे कई गुमनाम रचनाकार भी हैं, जिनके नाम इतिहास के पन्नों में तो दर्ज़ नहीं हैं, लेकिन उनकी रचना का एक-एक शब्द सीधा दिल तक पहुंचता है और शायद इसी वजह से अंग्रेज़ों ने अपने शासनकाल के दौरान इन कविताओं पर प्रतिबंध लगा दिया था।

तो चलिए जानें ऐसी ही कुछ कविताएं जिन पर लगाई गई थी पाबंदी-

. देश भक्ति

“जहां देश भक्ति तहां अष्ट सिद्धि खड़ी रहे,
जहां देश भक्ति वहां नव विध, बखानी है

जहां देश भक्ति वहां बुद्धि के बिक्रोश होत
जहां देश भक्ति संपत्ति सुख दानी है।”

. हिम्मत करो हिम्मत करो

कई कवियों की लिखी आजादी की कविताएं लोगों में जागरूकता फैलाने की एक कोशिश रहीं। वे लोगों को ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जा रहे अत्याचार और अन्याय के बारे में आगाह करते रहे। इसके साथ ही वे लोगों को अपने अधिकारों के बारे में भी जागरूक करते रहे। ऐसी ही भावना इस कवि की कविता में देखी जा सकती है –

“सतावो जुल्म ढावो तुम धीरे-धीरे
सहे हिन्द कब तक सितम धीरे-धीरे

हुए हम सयाने और अधिकार लेंगे
जमावेंगे राही रसम धीरे-धीरे।”

. ज़ुल्म ढावो तुम

संघर्ष करते-करते कई बार लोग थक जाते या मायूस हो जाते, तो ऐसे में कवियों ने लोगों का हिम्मत और हौसला बढ़ाने का काम भी किया है। ये कवि अपने शब्दों से लोगों में एक नई ऊर्जा का संचार करते और उन्हें फिर से आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते। जैसा कि इन पंक्तियों में कवि ने कहा है-

“यारों तुम फतह पाओगे, तुम हिम्मत करो
आजाद हो जावोगे तुम हिम्मत करो

वाजिब है तुमको वीर वर कुर्बान होना देश पर
आओ बने वॉलेन्टियर, हिम्मत करो हिम्मत करो”

. यहां तुम्हारा गुज़र नहीं

इतना ही नहीं, कई कवियों की तो आजादी की कविताएं, अंग्रेजों से सीधा संवाद करने का भी ज़रिया थीं। वे उन्हें आगाह करते थे कि उन्हें अब हमारे देश से जाना ही पड़ेगा। जैसे कि एक कवि ने इन पंक्तियों में लिखा है –

“उठा लो ए डेरा ओ टोप वालों यहां तुम्हारा गुज़र नहीं है
जो मुद्तों से यों सो रहे थे अब जग पड़े हैं वो शेर सारे

मिटा रहे हैं महज खुमारी फजीर क्या खबर नहीं है
बजा के डंका निकल पड़े हैं, मैदान ए जंगे आ खड़े हैं

वतन हमारा, मजे़ उड़ाते हो तुम, हमें अब सबर नहीं है
दिखाओ भाले, चला दो गोली, जकड़ दो बेड़ी, हमें पकड़ कर”

. रंग दे बसंती चोला

आज़ादी के संघर्ष के दौरान के वे कवि निडर थे। आजादी की कविताएं लिखने वाले उन कवियों को न तो गिरफ्तारी का डर था और न ही गोली का। ऐसे ही एक कवि थे पंडित राम प्रसाद बिस्मिल। पंडित बिस्मिल की एक रचना है, जो आज भी लोगों में जोश भर देती है। कविता के बोल कुछ इस प्रकार हैं:

“मेरा रंग दे बसंती चोला, माई रंग दे बसंती चोला
इसी रंग में गांधी ने नमक का धावा बोला

मेरा रंग दे बसंती चोला
इसी रंग में वीर सिवा ने मां का बंधन खोला

मेरा रंग दे बसंती चोला
इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला

मेरा रंग दे बसंती चोला”