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गुड़िया का मेला (नागपंचमी विशेष )
गुड़िया का मेला

मुनिया आज सुबह से जिद कर रही थी, पिता जी हमें भी  मेला जाना है, गुड़िया, गुब्बारे, खिलोने और झूले झूलना है
किशोर (मुनिया के पिता जी ), अरे शोर मचाना बंद करो, अभी बहुत समय है |
शाम को चलेंगे, अभी जाओ यहाँ से और मुझे अखबार पढ़ने दो, मुनिया नीचे मुँह लटकाये कमरे से बाहर आई, माँ....... माँ....... माँ कहाँ हो तुम, माँ........ माँ को कही ना देख कर मुनिया और परेशान हो गयी, वापस फिर पिता जी के कमरे मै गयी, पिता जी .. हुँह, किशोर अख़बार अभी भी पढ़ रहा था, इससे पहले की गुस्सा नाक पर आता, माँ नही दिख रही
जाने कहाँ चली गयी....
विमला एक स्वंत्र और खुले विचारों वाली औरत, रूढ़िवादिता का पालन करती लेकिन अपनी इच्छा से...
जाने कहाँ सिमट कर रह  गयी उसकी दुनिया, किताबें पढ़ना, लेखन का उसे बहुत शौक था, शौक ही बन कर रह गए.
आज गुड़िया है, कितना खुशी का दिन है,यह कहते हुए वो भागकर छत पर जाती है और अटारी पर रखा बक्शा निकलती hai, विमला विमला... आई
यहाँ क्या कर रही, अरे वो, शायद बता दूंगी तो फिर मेरी लिखी हुई कविताएं, मेरी रचना फिर हमेशा की तरह बंद ही हो जाएगी...
किशोर -कहाँ सोच मै डूब गयी
विमला -अरे कही नही, वो आज गुड़िया है, मेरा मतलब नागपंचमी तो सोचा अटारी आज साफ कर लू, साल भर से गन्दा पड़ा है
मुनिया बड़े ध्यान से मुझे देख रही थी, शायद वो गुड़िया मुझे समझा रही और सीख दे रही इस गुड़िया पर माँ -दिखा ना क्या है वो, और वो, वो भी दिखा ना
विमला -अरे कुछ नही रे, यहाँ कुछ तो नही, मैंने जल्दी से गुड़िया अपने साड़ी के पल्लू मै छिपा ली,
इस गुड़िया मै मेरी जान जो बसती थी, कितना मै दिन भर इसके साथ, सुबह से लेकर रात बिस्तर तक हम साथ साथ होते, पिता जी लाये थें ये गुड़िया मेरी सन्नो.. हाँ यही नाम तो मैंने रखा था, उसके बाद कहाँ मेरा ब्याह हो गया,  कितना मै रोई थी सन्नो और पिता जी से गले लिपट कर, माना वो बेजान थी लकिन मेरी जान उसमे बसती थी
माँ दूर खड़े बार बार अपने आंसू खुद ही पोछे जा रही थी, और मेरी सखी सहेलियां वो मुझसे दूर खड़ी थी, क्यूंकि मेरी जान एक मेरी सन्नो और दूसरे मेरे पिता जी थें....

माँ.... माँ, (मुनिया )जोर से मुझे चुटकी काटी, मै कब से आपसे कुछ मांग रही, हाँ क्या मुनिया
माँ, दो ना गुड़िया, गुड़िया कौन सी, अरे वही जो तूने छिपाई है अपने पल्लू मै
धत तेरी की, ये ले मै भी ना बड़ी पागल हूँ, ले मेरी सन्नो(गुड़िया ) मुनिया झट से मेरे हाथ से लेकर उसे खूब प्यार करने लगी, मेरे आँखों मै आंसू आ गए मेरी जान तो ये है, देखो तो कितनी ख़ुश है गुड़िया पाकर...
मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया और कहा, वो बेजान हो कर मेरी जान थी, लकिन ये तो मेरी साँसों मै बसी जान है
(मेरी मुनिया )
फिर मै जल्दी से, अटारी साफ की, और अपनी लिखी हुई रचनाएँ, कविताए, सब  निकाली, और पढ़ पढ़कर वापस रख दी..... यह दिल को समझते हुए अभी रुक समय वो भी आएगा, ज़ब मै फिर मै प्रकाशित करूंगी अपनी कविताएं और रचनाएँ....
मुनिया चहकते हुए पुरे आँगन मै खूब मस्ती कर रही थी, पिता जी यह देखिये, गुड़िया
किशोर -अरे !ये कहा से मिली
मुनिया -माँ के बक्शे से, विमला के बक्से से
हाँ पिता जी, जाओ आप जाकर देख लो, या पूछ लो
माँ से,
किशोर... दिल नही मानता, जाता हूँ...
विमला -विमला, जी कहिये, वो गुड़िया हाँ सन्नो, विमला के मुँह से सन्नो, अरे वो मेरी गुड़िया है आज ही के दिन पिता जी ने मेले से दिलाई थी, मेरी जान बसती थी उसमे, मेरी सन्नो
किशोर आंख मै आंसू लिए पास आकर बोला, और मेरी जान तुझमे और मुनिया मै
रचनाएँ, कविताओं का समय आ गया था अब, किशोर विमला के काम मै हाथ बाँटता, खाली समय मै विमला लेखन का कार्य करती
शाम हो चली थी, किशोर -मुनिया चल मेला घुमा लाऊं
मुनिया चहकते हुए,,
"मेरी दुनिया, मेरी सन्नो
सजाऊँ मै दुल्हनिया बना कर सपनो की दुनिया मै "


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