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तीसरा दिन



दर्द से कराहते हुए जैसे ही मैंने हाथ सीधा करना चाहा वह दीवार से टकरा गया। उफ़्फ़फ़! न सीधा खड़ा हो सकते हैं ,ना पैर फैला के लेट सकते हैं ।कितनी छोटी सी है यह काल कोठरी... और काल कोठरी से क्या उम्मीद लगा सकते हो । मेरे ही विचार ने मेरे पूर्व विचार को जवाब दिया ।
दो दिन से इस अंधेरी ,भयानक ,बदबूदार कोठरी में ..जरा सी जगह में ,सिकुड़े पड़े पूरे बदन का रोम-रोम दर्द से बेहाल था ।
आज तीसरे दिन इस बदबूदार माहौल में लगता है अभ्यस्त हो रहा हूँ। पहले दिन तो जाने कितनी ही उल्टी की। नीम अंधेरे में टटोल के, खुद को अपनी ही गंदगी से दूर रखने की कोशिश में, कितनी बार सख़्त दीवारों से टकराकर चोट खाई ।चीखने की कोशिश भी की। लेकिन,सब बेकार । आख़िर सुनेगा भी कौन ?
एक-एक पल सदियों सा गुज़र रहा है और बीती जिंदगी पल में गुजर गई सी लगती है। क्यों हूँ मैं आज इस भयावह स्थान पर जहाँ खूँखार अपराधी भी नहीं लाए जाते??सब समय का फेर है। कब ख़ुशहाल वक़्त करवट ले और पल में सब तहस-नहस हो जाए ,कोई नहीं जानता।
इस नीम अँधेरे में हाथ को हाथ नहीं सूझता । पर, दिन के किसी एक समय बहुत हल्की सी रौशनी दीवार पर आती है और एक बिंदु उजागर करती है। जाने कैसा धब्बा लगा है? वहाँ क्या होगा. .. सोचे जा रहा हूँ। कुछ भी हो, पता लगा कर भी क्या होगा ? कोई निशानी हो सकती है शायद ! यहाँ से निकलने का कोई चोर रास्ता? नहीं-नहीं, दिमाग ने नकार दिया।
"तू,पागल हो रहा है। भूखे-प्यासे ,पड़े-पड़े दृष्टि-भ्रम हो रहे हैं। इस बदबू ने दिमाग सड़ा रखा है और एक वह मेरे घर के बगीचे में लगा रातरानी का पौधा ,जिसकी खुशबू में.. मैं देर रात तक बालकनी में बैठा रहता था । कितना सुखद अहसास देती थी वह महक । अचानक मुझे वही खुशबू महसूस होने लगी । अपनी बालकनी से दिखता खूबसूरत चाँद और ठंडी महकती हवा का झोंका...
"अहा!कितना सुखद अहसास है।" सामने मधु का ख़ूबसूरत चेहरा ,जो अपने नाम से भी अधिक मीठे स्वभाव की थी। "मधु" मेरा प्यार,मेरी जीवनसँगनी ,मेरे जीवन का आधार...। उसकी असमय मृत्यु ने मुझे जैसे अंदर तक तोड़ दिया था।उस ग़म को भुलाने के लिए मैंने ख़ुद को नशे में पूरी तरह डूबा लिया।
और करता भी क्या मैं?भरी दुनिया में अकेला इंसान आख़िर क्या करेगा?किस के लिए जिएगा?अपना कहने को कोई न था..न रिश्तेदार...न यार-दोस्त।
दोस्त के नाम ज़हन में आते ही रोहन का कुटिल चेहरा आँखों के आगे आ गया।मेरे जबड़े कस गए और फिर से बदन में खून खौलने लगा। 'कितना घिनौना इल्ज़ाम उसने मेरी मृत पत्नी पर लगाया था ,सोचते-सोचते मेरा चेहरा गुस्से से लाल हो गया।अच्छा हुआ! जो गला घोंट के मैंने उसे मौत के घाट उतार दिया। नहीं तो, मैं ऊपर जा कर मधु को क्या मुँह दिखाता'।मैंने जो भी किया,मुझे उसका रत्ती भर भी अफ़सोस नहीं है। दुख है तो बस इस बात का कि मैं किस तरह जेल के शातिर अपराधियों के चुंगल में बार-बार फँस कर आज इस नरक जैसी जगह पर पड़ा हूँ। शायद ,नरक भी इस से बेहतर ही होगा।
इससे तो अच्छा है कि मैं मर ही जाऊँ। हे ईश्वर! मुझे मौत दे दो। बोलते हुए यंत्रवत सा मैं, अपना सिर दीवार पर पटकने लगा। पटकता रहा...पटकता रहा। तीव्र पीड़ा का कोई असर मुझ पर नहीं हो रहा था।मैं पत्थर हो चुका था।
बहते खून की अधिकता से मैं वहीं औंधे-मुँह गिर पड़ा और उस दीवार पर एक धब्बा छूट गया। "चलो,मरते-मरते इस धब्बे की पहेली तो सुलझ ही गई।"

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© दीp