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घुटन
पौधे सूख रहे हैं, तस्वीरों पर धूल लगी हुई है। घड़ी का समय कुछ 4 घंटे पीछे है। उलझे हुए बिस्तर, बिखरा पड़ा सामान, आधी खुली खिड़कियाँ, हवा से उड़ते अखबार, सब कुछ तहस नहस है जैसे अभी अभी आँधी सी आयी हो। दिमाग की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। मन उलझन में है, जो भी बात अंदर आती हैं उलझ सी जाती हैं। किसी बात का कोई हल नहीं निकल पा रहा। ज़िन्दगी में कुछ हो नही रहा। लगता है सदियों से एक जगह बैठी हुई हूँ। सब आँखों के सामने से fast forward होके निकलता जा रहा है बस मैं pause हूँ। खुद से ही खुद का परिचय नहीं हो पा रहा है। लगता है मन में कोई और आके बैठ गया है, मानो किसी अनजाने घर में आ गयी हूँ। आत्मा और शरीर आपस में समझौता सा किए हुए हैं। पता नही संतुष्टि किसमे मिलेगी।
अब तो किसी चीज़ की परवाह भी नहीं होती, जैसे कपड़े मैले हो जाने पर इन्सान कहीं भी बैठ जाता है। जो मन कभी सब कुछ व्यवस्थित देखने का आदी था वो अब सब कुछ खुद उलझाता जा रहा है। वो उत्साह पता नहीं कहाँ चला गया। उन महत्वाकांक्षाओं की राख भर ही बची है। कुछ तो बहुत ज़रूरी खो गया है। कुछ भारीपन है मन मस्तिष्क में। अब बस कुछ करना है क्योंकि करना पड़ेगा, इसलिए नहीं कि करने की इच्छा है, अपितु इसलिए कि लोग क्या कहेंगे। इतनी कमज़ोरी, इतनी कायरता पहले तो नही थी। लगता है सर दो खम्बों के बीच दबा हुआ है, जिस दिन ये बोझ हल्का होगा बहुत सुकून मिलेगा। अब किसी से कोई लगाव महसूस नहीं होता। इतने स्वार्थी मन से घृणा सी आती है। जैसे कोई दर्पण है जिसे मले जा रही हूँ पर वो साफ होने की जगह और गंदा होता जा रहा है। शरीर नश्वर है। जैसे इंसान कपड़े बदलता है वैसे ही शरीर। पर मुझे तो आत्मा को बदलना है। शरीर का वज़न कुछ मालूम ही नही होता, भारी तो मन लगता है।
© metaphor muse twinkle