...

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khuda Hafaj....
मुझे वो धुंध में लिपटी हुई

मासूम सदियाँ याद आती हैं

कि जब तुम हर जगह थे

हर तरफ़ थे

हर कहीं थे तुम

रिहाइश थी तुम्हारी आस्मानों में

ज़मीं के भी मकीं थे तुम

तुम्हीं थे चाँद और सूरज के मुल्कों में

तुम्हीं तारों की नगरी में

हवाओं में

फ़िज़ाओं में

दिशाओं में

सुलगती धूप में तुम थे

तुम्हीं थे ठंडी छाँवों में

तुम्हीं खेतों में उगते थे

तुम्हीं पेड़ों पे फलते थे

तुम्हीं बारिश की बूँदों में

तुम्हीं सारी घटाओं में

हर इक सागर से आगे तुम थे

हर पर्बत के ऊपर तुम

वबाओं में

हर इक सैलाब में

सब ज़लज़लों में

हादसों में भी

रहा करते थे छिप कर तुम

हर इक आँधी में

तू॰फाँ में

समुंदर में

बयाबाँ में

हर इक मौसम हर इक रूत में

तुम्हीं हर इक सितम में थे

तुम्हीं हर इक करम में थे

सभी पाकीज़ा नदियों में

मुक़द्दस आग में तुम थे

दरिंदों और चरिंदां

बिच्छुओं में नाग में तुम थे

सभी के डंक में तुम थे

सभी के ज़हर में तुम थे

जो इंसानों पे आते हैं

हर ऐसे क़हर में तुम थे

मगर सदियों के तन से लिपटी

धुंध अब छट रही है

अब कहीं कुछ रौशनी-सी हो रही है

और कहीं कुछ तीरगी सी घट रही है

ये उजाले साफ़ कहते हैं

न अब तुम हो वबाओं में

न अब तुम हो घटाओं में

न बिच्छू में न तो अब नाग में तुम हो

न आँधी और तू॰फाँ

और न तो पाकीज़ा नदियों

और मुक़द्दस आग में तुम हो



अदब है शर्त

बस इतना कहूँगा

तुमने शायद मुझ पे है ये मेहरबानी की

मैं अपने इल्म की मश्अल लिए

पहुँचा जहाँ हूँ

मैंने देखा

तुमने है न॰क्ले-मकानी की

मगर अब भी ख़ला की वुस्अतों में

तुम ही रहते हो

जिसे कहते हैं िक़स्मत

अस्ल में

हालात का बिफरा समुंदर है

मगर अब तक यक़ीने-आम है

बनके समुंदर

तुम ही बहते हो



मुझे ये मानना होगा

वहाँ तुम हो

जहाँ ये राज़ है पिन्हाँ

कि ऐसी कायनाते-बेकराँ की इब्तेदा

और इंतेहा क्या है

वहाँ तुम हो

जहाँ ये आगही है

मौत के इस पर्दे के पीछे छिपा क्या है

अभी कुछ दिन वहाँ रह लो

मगर इतना बता दूँ मैं

उधर मैं आनेवाला हूँ।