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यौम ए पैदाइश
यौम ए पैदाइश रात का इंतज़ार था।

उत्सुकता का बोलबाला हो, ऐसी एक अदनी सी चाहत थी। घड़ी इंतज़ार की अब बस खत्म होने ही वाली थी।
दो ही दिन जो बचे थे। जहाँ इच्छाओँ के पुल को पार करके अपने सपनों के बुगियाल पे गुलिस्ताँ बनाने की चाहत मन में लिए, मैं आज़ाद परिंदा बन उड़ा जा रहा था।

भूल गया था की ये उत्सुकता जो है, इसके अस्तित्व के पहलू अनेक हैं। एक शब्द या फिर वाक्य में बयाँ करना उचित ना होगा।

खैर, आखिर वो घड़ी आ ही गयी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मेरी परस्पर दिमागी कश्मकश, खुद के द्वारा आनन फानन में यूँही उठाए गए कदमों के चलते, ज्वालामुखी बन चुकी थी जो की बार बार मुझे तहलका मचाने के लिए बेवजह उकसा रही थी।

अब हालात ये हैं कि, एक मन करता है, जैसा चल रहा है चलने दो, दिमाग को काबू में रखो।
वहीं दूसरी और ये भी मन करता है कि, छोड़ यार ये सब । पब्लिक तो महान है ही, बस मैं ही अकेला इस जहान में एक जाहिल हूँ जो मारा मारा फिरता है इस फिराक में कि शायद अगली बार कुछ क्वालिटी टाइम बिताएगी पब्लिक। लेकिन स्तय ये है कि क्वालिटी टाइम पब्लिक चाहती ही नहीं। सबको तो किक चाहिए।
फिर क्या था, जब ऐसा आभास होने लगा तो मैं कट लिया, अपने रास्ते।

कटाक्ष - पर होना तो वही था जो मंजूर राम ऐ बिस्मिल था।
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© Kunba_The Hellish Vision Show