...

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"हर बात पे तुम
अपने शौक का ज़िक्र
करती थी...

हर बात पे तुम
अपने शौक का ज़िक्र
करती थी...

आज हुआ मालूम कि,
तुम सिर्फ अपनी
फिक्र करती थी..."

इस बार मैं पलट के भी नही देखूँगा...

बस... नहीं देखना है मुझे...

मुझे पता है रुक के देख रही हो तुम... पर अब मैं रुकूँगा नहीं...

मुझे दुःख है तुम्हारे जाने का...

पर... कष्ट नहीं है...

प्रेम में शर्तें नहीं होती... होता है तो सिर्फ प्रेम से जुड़ा हर लम्हा...

चाहे वो संगीत में,

रोशीनी में,

कपड़ो में,

खाने में,

प्रकर्ति को निहारने में,

बहते पानी में,

चलती हवा में,

चाँद की चाँदनी में,

सूर्य की तपिश में,

फलों की मिठास में,

ईर्ष्या में,

रफ्तार में,

ठहराव में

यहाँ तक की एक नफ़रत भरे दिल में भी प्रेम है...

मानो कल की बात हो जैसे...

तुम स्कूल के बरामदे में खड़ी थी और मैंने पहली बार देखा तुम्हें...

मैं मैदान में,

धूप...