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“दादी मां की पोटली ”
कुछ दिन पहले ही हम सभी कॉलेज के छात्र-छात्राएं एक वृद्धाश्रम में विज़िट के लिए गए थे। पर न जाने वहाँ मिली एक वृद्ध महिला में मुझे अपनी दादी माँ नज़र आईं थीं। जैसे मैंने उनको कहीं देखा हो। उनके साथ समय बिताने के लिए मैं बिल्कुल आतुर थी कि वहाँ की एक परिचारिका ने मुझे उनके साथ बैठने की अनुमति दे दी थी। मैं उनके पास लगभग डेढ़ घंटे बैठी रही उनसे बातें की पर दिल जैसे कह रहा हो कि शायद मेरी दादी माँ भी बिल्कुल ऐसी ही थी जैसे मैंने माँ के एक बक्से में रखे घर की उस तस्वीर में देखा था।
कॉलेज से बस से सब लोग ‛शांतिनिकेतन वृद्धाश्रम’ के लिए निकल पड़े। हम सभी को कहा गया था कि अपने साथ वो वहां के वृद्धों के लिए कुछ ज़रूरी सामान लेकर आएं। सभी कुछ न कुछ अपने साथ लाये थे। किसी ने झंडू बाम की डिबिया तो किसी ने डाबर लाल दंत मंजन का डिब्बा तो किसी ने कंघी, तेल, पावडर के डिब्बे के साथ साथ कुछ फ़ल भी लिए थे। मैंने तो कभी अपनी दादी माँ के साथ दिन नहीं बिताये थे, बस उन्हें तस्वीरों में देखा था। मुझे लगा शायद दादी माँ को मेरे लाये हुए फल पसंद आ जाएं। माँ कहती हैं उन्हें सेब बहुत पसंद थे, तो मैंने भी एक किलो सेब खरीद लिए थे। अब बस इंतज़ार था तो शांतिनिकेतन पहुँचने का।
थोड़ी ही देर में हम सब छात्र-छात्राएं अपने इंचार्ज और शिक्षकों के साथ वहाँ पहुँचे। पहुँचते ही लगा जैसे मैं यहाँ आने के लिए बरसों से इंतज़ार में थी। हम सभी एक कतार में अनुशासन का पालन करते हुए पहली मंज़िल पर गए जहां केवल महिला वृद्धों का निवास था। सब अपने अपने एक ग्रुप में बंट गए और वहाँ की वृध्द महिलाओं से हँस बोलकर बातें करने लगे। मैं भी वहाँ बहुत खुश हुई उन सबको देख लेकिन कुछ ही देर में दिल और आँख दोनों भर आईं। वहाँ का नज़ारा ही कुछ ऐसा था कि आँखों से आँसू निकल आए। पर खुद को संभाल कर मैंने वहाँ उन सभी वृद्ध महिलाओं से उनका हाल जाना उनसे बातें की। पर एक फ्रॉक पहने हुए वृद्धा को देख मानो ऐसा लगा जैसे मैंने अपनी दादी माँ को देख लिया।
वह छोटी सी कद की झुकी हुई सफेद बालों वाली वृद्धा चेहरे पर कई अनुभव की झुर्रियाँ और एक धीमी सी मुस्कान के साथ खिड़की के पास पाँव हिलाते बैठी थी। मैं अनायास ही उनके पास खिंची चली आयी। उन्होंने मुझे देखा परंतु कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। मैं चुपचाप उनके पास बैठ गई। फिर वो मेरी ओर मुड़ीं और मुझसे पोपले गालों को हिलाकर पूछा “ तुम कौन हो ?” मैंने हँस कर कहा आपकी पोती। इतने में ही वो खिलखिलाकर हँस पड़ी और उनके साथ मैं भी। पर वो हँसते-हँसते मानो रो पड़ी हों। उनकी आंखें भर आईं थीं। मैंने उनके आँसू पोंछे फिर उनसे उनका हाल पूछा “आप कैसी हैं ? और आप यहाँ कब आईं ?”। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा “मैं तो यहाँ कई सालों से हूँ” फिर मैंने और कुछ पूछने की हिम्मत नहीं की।
मैंने उनसे कहा कि “क्या मैं आपको दादी माँ कह कर बुला सकती हूँ?” तो उन्होंने बड़ी खुशी से मुझे अनुमति दी और मेरे सिर पर हाथ फेरा। मैंने साथ लाए हुए सेब दादी माँ के सामने रखे तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। कई दिनों बाद उन्होंने इतने सारे सेब देखे और सब के सब उठा कर अपनी एक छोटी सी पेटी में थरथराते हांथों से रख दिये। एक सेब मैं उनको काटकर खाने के लिए देने लगी तब उन्होंने कहा “मुझे सेब बचपन से पसंद थे। मेरा बेटा मेरे लिए सेब लाया करता जब भी वो भुवाली जाता। यहाँ तो अब भुवाली जैसी ठंड नहीं, ना ही हमारे उत्तराखंड की ताज़ी हवा है और कहते-कहते वो अचानक चुप हो गईं। मैंने उनको सेब दिया तो वे एक चूहे की तरह सेब को अपने कमज़ोर दाँतो से कुतर-कुतरकर खाने लगी। मैंने उनसे पूछा क्या आपका बेटा आपसे मिलने नहीं आता। इस पर उन्होंने कहा “बेटा तो अब कभी नहीं आता पर यहाँ मेरी सेवा करने के लिए और भी बेटे हैं ना। कहते कहते उनके चेहरे पर एक झूठी आस की लकीर खींच गई।
एक घंटे साथ बैठे पता नहीं कब बीत गए। तब दादी माँ ने मुझे अपने परिवार की एक पुरानी तस्वीर अपने छोटे से पोटली में से निकाल कर दिखाई। तस्वीर थोड़ी मुड़ी हुई थी पर उसमें छपे किरदार साफ़ नज़र आते थे। मैंने जैसे ही वो तस्वीर हाथ में ली और उसे ध्यान से देखा तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। तस्वीर में मेरा परिवार दादी माँ के साथ आशीर्वाद लेता खड़ा था साथ में उनकी गोद में मैं छोटी सी गुड़िया थी। इतने में वहां की परिचारिका आई और खाने के लिए दादी माँ को हाथ पकड़कर नीचे ले गई। मेरे हाथ में तस्वीर पड़ी रही और मैं भरी आँखों से दादी माँ को जाते बस देखते रही और खुली रही उनकी वो पोटली जो अब तक कई राज़ दादी माँ के अपने अंदर बांधे हुए थी।
–नीलम

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