बदलते रिश्ते और एहसास,मेरा अंतर्मन
पार्ट प्रथम: स्वार्थ और अंतर्मन
मुझे नहीं मालूम कि वो क्या सोचता है और सोचे तो सोचे ,मै ऐसा ही सोचती थी और बोलती भी थी ऐसा उसको।
मै वो ही हूं क्या जो हर बात शेयर करती थी और अब पासवर्ड तक छुपाती हूं।
क्या मै वो ही हू। सोचती हूं तो कुछ भी असामान्य नहीं लगता क्योंकि अब मेरी जरुरते बदल गई। हा मै ऐसी ही हूं बोल कर मामला सुलटा हुआ समझ भी लेती हूं।
मै कई कई दिनों तक उसको बहाने बना बना कर ब्लॉक किया करती थी, पर ना जाने क्यों फिर मै सामान्य हो जया करती थी।
मै उसके बिना मुस्कुराया नहीं करती थी पर अब मुस्कुराने की वो जरूरत भी नहीं लगता था।
अचानक से क्या हो गया
यह बहाना था या जरूरत?
मै अब मेरे क्लास फ्रेंड के साथ अच्छा फील करती थी।
हा मैंने उससे वादे किए थे पर उस समय मै नादान थी और मुझे कोई विश्वसनीय सहारा भी नहीं था।
यह स्वार्थ था यह एहसास मुझे आज पूरे 7 साल बाद हुआ
जब उसकी मां बीमार हुई तो मुंह से निकल पड़ा ,अरे यार कुछ हो जाए तो मुझे परेशान मत करना प्लीज। अन्तिम शब्द समाप्त होने से पहले ही मुझे गलती का एहसास हो गया था ,पर मुझे चालाकी से अब बात घुमानी थी। मै चालाक बन गई थी जब फोन काटना होता तो उसी को पूछती क्या कर रहा है और जब वो जवाब देता तो रास्ता मुझे मिल जाता । मुझे मालूम था कि उसको भी सब कुछ समझ आ रहा है पर ऐसा नहीं चाहती थी कि मै बुरी बन जाऊ। मै पूछती थी क्या कर रहा है ,जब वो बोलता कि मै खाना खा रहा हूं तो मै तपाक से बोल देती कि ठीक है खाओ मै मेरा अमुक काम कर लेती हूं।
जब वो कुछ नहीं कर रहा होता तो मै बोलती ठीक है मै थकी हुई हूं।
जब वो प्रश्न करता तो मै जवाब दिन से अच्छा फोन काट कर मेरे सोशल मीडिया पर व्यस्त हो जाती थी। मुझे अब फर्क नहीं पड़ता कि वो परेशान है। उसका चाहना भी बुरा लगता था।
मै फोन हाथ में होते हुए भी देख कर अटेंड नहीं करती थी और मन ही मन बोलती दिमाग खाएगा।
मै घंटो चैट करती और पढ़ाई भी करती।
अब पढ़ाई मै जिसके साथ बैठ कर करती मुझे उसको नहीं बताना था क्योंकि वो शक करता था कि मै किसी लड़के के साथ ज्यादा व्यस्त रहती हूं। मै मेरी सहूलियत देखने लगी जो जरूरत भी थी।
मै अब उस समय भी लव यू बोल कर खुश कर देती जब वो कोई छोटा रीचार्ज कर देता। वो मेरी जरूरत छोटी छोटी ही पूरी करता था । मुझे उसको ज्यादा जरूरत महसूस नहीं होती।
जब भी वो मिलने की बात करता मै कहती जितने पैसे खर्च करेगा मिलने में वो मुझे भेज दे। दरअसल मुझे मिलने ना मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता था।
सच भी है मुझे नए नए दोस्त बनाने में मजा आने लगा। मुझे उसका रोना धोना अच्छा नहीं लगता अब ।
सच कहूं तो वादा वाफाई बेवफाई जैसे शब्दों से घिन हो गई। ये तभी अच्छे लगते थे जब मुझे उसके साथ जरूरी था रहना, अब निहायत बकवास और पुराने लगते।
पता नहीं मुझे एक लड़का बहुत अच्छा लगा और उसको चैट का मालूम चल गया। वैसे उसकी बहुत सी लड़कियां दोस्त थी पर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मुझे बहुत अच्छा लगता था।
हा ऐसा जरूर है जब मैंने उसकी कोई परवाह नहीं की तो उसकी फेसबुक पर लड़कियों को भेजे मैसेज देखे तो मुझे बहाना मिल गया।
अब मै उसको सामान्य ही करना चाहती थी पर अचानक से नहीं हो पा रहा था।
मै उसको कितने झांसे देती ,सच्चाई छुप भी नहीं सकती थी।
शब्दों, हाव ,भाव से मालूम चल ही जाती थी।
मै जब ऑनलाइन रहती तो उसको जरूरी नहीं समझती थी बताना कि मै किसके साथ हूं। पर हा वो भी उसी समय होता तो मै अक्सर खुद के बचाव के लिए मैसेज कर दिए करती थी।
कभी मै हर पल की खबर लिया करती थी और दिया करती थी पर अब संभव नहीं था ,क्योंकि मेरे पास कोई ना कोई रहता या रहती थी। हा ऐसा जरूर था कभी कि चाहे जो हो पर वो ही पहले था, अब मुझे अच्छा नहीं लगता और जरूरी भी नहीं लगता। वो बुरा माने या परेशान होता तो भी मुझे फर्क नहीं पड़ता था।
जब कभी वो परेशान रहता तो मुझे अब उसकी तकलीफ से लेना देना नहीं रहता।
एहसास स्वार्थ का।
© J. R. GURJAR
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