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खुद की खुशी.....या खुदकुशी....??
खुदकुशी.........खुद की खुशी??
वो मिली थी मुझे...... खुदकुशी के मात्र चंद घंटों पहले आज भी वह छड़ ठीक उसी प्रकार से याद होता है जैसे मटर की फली छीमियों में शायद बदल रही हो और उसमें धीरे-धीरे पीड़ा और प्रेम का रिसाव हो रहा हो जिसमें कूट-कूट कर प्रेम भरा हो........
ओ कागज का पन्ना भी पंखे की हवा से फड़फड़ा रहा था और उस कमरे का पंखा अफसोस जता रहा था उसने बचपन से लेकर आज तक सिर्फ मुझे गर्मियों में शीतलता दी थी और शायद कहीं ना कहीं मां के पंखे जैसा प्रेम भी फिर भी उस लड़ाई में जब पुरुषत्व भरे समाज ने हीन भावना से उसे गालियों में बदल दिया था हां मैं कैसे भूल सकती हूं खुदकुशी के चंद घंटों पहले तुम मुझसे मिली थी..........
वैसे तुमने उस फोन की एक छोटी सी स्क्रीन को मेरा कंधा समझकर अपना सर रख दिया था और अपना सब हाल कह दिया था
सब ठीक हो जाएगा ऐसा नहीं बोलते इसके अलावा मैं उसको दिलासा के अलावा कुछ नहीं दे सकती थी..... मैं जिंदगी से हार गई हूं और जीने के लिए कुछ नहीं बचा है उसके वो शब्द कानों में शीशा घोल रहे थे और मैं उस आवाज के पीछे कल्पनाओं के तालाब के किनारे न जाने कितनी बार आवाज लगाती रही और वह आवाज खुद ही मेरे कानों में गूंजती रही वह एक आखिरी शब्द की मुझे कायर ना कहना......
काश मैं उस वक्त तुम्हें जवाब दे पाती की मैं कितनी पीड़ाओं के समंदर में उथल-पुथल मचाती हुई समुद्र की लहरों को जब भी तैरकर पार करती हूं एक तेज तूफान आ कर फिर से मुझे उसी समंदर में धकेल देता है.....
पर मैं कहां जाती अपने उस घृणा पीड़ा और अपने शोक को लेकर क्योंकि मैंने आज किसी को फिर से कहते हुए सुना था
तुम बहुत बहादुर हो.........❣️❣️🌹🌹