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"""तुम्हारी कुमुद" भाग-4,लेखक -मनी मिश्रा
तुम्हारी कुमुद

आगे ,..
........माधव जाकर न जाने क्यों तांगे पर बैठ गया था?
"सुनो महेंद्र बाबू ..........एक अनजानी सी आवाज मुझ तक आई है। "यह तुम हो कुमुद ....और यह तुम्हारी आवाज है"।
मैंने अचानक पीछे मुड़ते हुए उसे कुछ इस तरह से देखा था, जैसे मैं यह जानता ही नहीं था कि वह मेरे पीछे ही खड़ी है।
"कहो...... मैं कुछ शर्माता हुआ, नजरों को चुराता हुआ बस इतना ही कह पाया ।
""'मैं देख रहा हूं तुम मुझे बड़े गौर से निहार रही हो।क्या देख रही हो मुझ में,..... मुझे ऐसे मत देखो, मैं इस काबिल नहीं कि इतने गौर से देखा जा सकूँ..... बस तुम वह कहो जो तुम कहना चाहती हो""""
मेरे चेहरे पर पसीने की बूंदे आ जमी थी।
,.....अगर तुम्हें कहीं घूमने चलना था ,तो तुम भी तो आकर मुझसे कह सकते थे ।उसे क्यों भेज दिया, जिससे मैं जानती तक नहीं ?
""""तुमने कितने हक से यह बातें कहीं है कुमुद! वह कौन सी ऐसी चीज है जो तुम्हें इतना आत्मविश्वास दे रही है ।।
कहीं ये वही मंगलसूत्र तो नहीं, जिसे मैने तुम्हारे गले में बांधा था। कहीं ये वही सिंदूर तो नहीं ,जो तुम्हारी मांग में हैं""...
...क्या देख रहे हो? कुछ कहते क्यों नहीं!,... उसने खुद को एकटक निहारते हुए देखकर मुझसे पुछ था।
"" नहीं,,, वह बस ऐसे ही !...