...

6 views

"काला हार" भाग -४ (अंतिम भाग)
पल्लवी ने जब किताब का पहला पृष्ठ खोला तो प्रथम से लेकर अंतिम पृष्ठ तक पल्लवी को वो रहस्य पता चला जो अब से पहले केवल अतीत के गर्भ में ज़ब्त थी। जो कुछ पल्लवी ने पढ़ा उसका सार इस प्रकार है:- मैं अनुपमा इस घर की बहू आज इस घर की एक अंधेरी कोठरी में बैठी ये किताब लिख रही हूं क्या करूं बाहर बैठ कर मैं ये सब नहीं लिख सकतीं लेकिन इस घर के हर एक राज़ से मैं आज पर्दा उठाना चाहती हूं। मेरा विवाह इस शहर के नामचीन ज़मींदार त्रिलोकीनाथ चौहान के पुत्र चित्रंमवद के साथ १९२४ को हुआ था। ससुराल में मुझे किसी वस्तु की कोई कमी नहीं थी,मैं बेहद सुखद और वैभवशाली जीवनशैली में जिन्दगी गुजार रही थी। एक वर्ष उपरांत मुझे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और मेरा एकांकी जीवन पुत्र के लालन-पालन में व्यतीत होने लगा। इस बीच मैंने कई बार ये देखा कि मेरे पति अक्सर रात को देर से आते थे और कई बार तो आते ही नहीं थें, मैंने जब जब उनसे ये पूछने की चेष्टा की वो टाल दिया करते थे।
लगभग एक वर्ष पश्चात एक रात मैंने उन्हें शराब में धुत्त होकर घर आते देखा तो मुझे बहुत क्रोध आया लेकिन अपने क्रोध को पीकर मैं उन्हें कमरे में ले गई और लिटा दिया। दूसरे दिन मैंने इस बाबत जब अपनी सास से सबकुछ कहा तो वो शांत स्वर में बोली बेटी ये तो इन ठाकुर जमींदार घरों की परम्परा है यहां के मर्द जब तक तवायफों के कोठे से नशें में धुत्त होकर नहीं आते उनकी शान घटती है, पत्नी तो उनके लिए केवल एक वर्ष तक ही प्रिया है फिर तो इनका ज्यादातर समय वही गुजरता है..... सुनकर मैं मानों काठ सी हो गई, मैंने अपनी सास से पूछा तो क्या पिताजी भी......? हां बेटी वो भी ऐसा ही करते आएं हैं और आज तक करते हैं,दिन तो इनका जमींदारी में और रात जनाना कोठे में गुजरता है। सास दुखद स्वर में बोली दुनियां के लिए तो हम महारानियों से कम नहीं क्योंकि मंहगी से मंहगी साड़ियां और असीमित ज़ेवर महंगे-महंगे इत्र और दूसरी तमाम...