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कैसी चाहत!
बड़े बड़े हरफो में सिनेमा में पिक्चर लगी थी लैला मंजनू और दूसरी हीर रांझा जमाना था 1980 का साहब वो भीड़ लगी थी टाकीज के बाहर रँझो और हीरो की मेरा मतलब था साहब लड़के और लड़कियों की लगता था कि अभी स्कूल और कॉलेज से भाग कर आये हो आखिर क्यों न हो शुक्रवार का दिन, नई पिक्चर लगी हो और भीड़ न हो।
कमाल की बात तो ये की ब्लैकीये भी मस्त तड़क भड़क वाली बुशर्ट और टाइट पैंट पहन के टोपी पहने 2 के 100 बोलते घूम रहे थे। कुछ लड़के कड़के निकले जो नही निकले वो कट गए ब्लैकीये से।
मैं साईकल स्टैंड पे सायकलें लगवा पार्किंग की पर्चियां थमा रहा था, कोई कोई विरला ही लम्ब्रेटा या बुलेट मोटरसाइकिल पे अपनी महबूबा को लेके जन्नत की सैर के ख्वाब बीनते पहुंचे होंगे।
आज भले ही मेरी उम्र अंकल वाली हो गयी हो पर उस जमाने में 16 साल का लौंडा ही तो था, कई उस्तादों को पीटते देखा और कितनो को पिटते हुए देखा। है न शब्दो का खेल उलझो मत एक न एक तो नीचे गिर के मार खाता ही था। खैर बात मजनुओं की और जिंदगी भर की कसमें खाने वाली लैलाओं की थी, तो हुजूर गेट वाले गार्ड ने टाकीज की घंटी बजते ही, पहले शो वाली 12 से 3 की पब्लिक को दो लाइनों में...