"गुलाब का एक बेरंग फूल" भाग-4 लेखक -मनी मिश्रा
(आगे)
"मैंने उससे आगे पूछा था ,कहां रहते हो?
.." यही"
,.. यहां कहाँ? मैंने चिढते हुए पूछा
" बस समझ लो गुलाब के इन्हीं फूलों में "उसने गुलाब के उन मुरझाए हुए फूलों को अपने जांघों पर संभालते हुए बोला था। और फिर बड़े इत्मीनान से आसमान में उड़ते हुए उन पहाड़ी बादलों को देखने लगा जो धीरे-धीरे कोहरे का रूप लेती जा रही थी ।
,,,,मैंने उसे ऊपर से नीचे तक घुरा... शक्ल सूरत और पहनावे से वह किसी अच्छे घराने से लगता था। बस ऐसा लग रहा था जैसे किसी से मिलने की बेकरारी में खुद पर ध्यान देना भूल गया हो। उसके उलझे हुए बाल हवा के सहारे कभी उसके आंखों को तो कभी उसके गालों को छू रहे थे और वह इत्मीनान से बैठा कहीं एकटक देख रहा था ।उसके यूं अनमनेपन से मैं झल्ला उठी थी।
...."भूत हो, जो इन फूलों में रहते हो। मैं बस उस इंसान को ठेस पहुंचाना चाहती थी ।जो इसी बेंच पर बैठा था। जहां मैं तब भी बैठी थी, जहां मैं अब भी...
"मैंने उससे आगे पूछा था ,कहां रहते हो?
.." यही"
,.. यहां कहाँ? मैंने चिढते हुए पूछा
" बस समझ लो गुलाब के इन्हीं फूलों में "उसने गुलाब के उन मुरझाए हुए फूलों को अपने जांघों पर संभालते हुए बोला था। और फिर बड़े इत्मीनान से आसमान में उड़ते हुए उन पहाड़ी बादलों को देखने लगा जो धीरे-धीरे कोहरे का रूप लेती जा रही थी ।
,,,,मैंने उसे ऊपर से नीचे तक घुरा... शक्ल सूरत और पहनावे से वह किसी अच्छे घराने से लगता था। बस ऐसा लग रहा था जैसे किसी से मिलने की बेकरारी में खुद पर ध्यान देना भूल गया हो। उसके उलझे हुए बाल हवा के सहारे कभी उसके आंखों को तो कभी उसके गालों को छू रहे थे और वह इत्मीनान से बैठा कहीं एकटक देख रहा था ।उसके यूं अनमनेपन से मैं झल्ला उठी थी।
...."भूत हो, जो इन फूलों में रहते हो। मैं बस उस इंसान को ठेस पहुंचाना चाहती थी ।जो इसी बेंच पर बैठा था। जहां मैं तब भी बैठी थी, जहां मैं अब भी...