...

10 views

इंसान जिन्दा रहते हुए भी मुर्दे के समान रहता है
जो चाहिए अगर वो न हो बाकि कुछ भी हो उससे क्या फर्क पड़ता है,
इंसा जिन्दा रहकर भी तो मुर्दे के समान रहता है,
वक्त इंशा को तोड़ देता है, और फिर न जुड़ने की हालत में छोड़ देता है,
फिर उसी हालात में जिंदगी गुजारनी पड़ती है
ख़ुशी के पलों में भी रोने को मजबूर करती है
टूट जाता है इंशा हर तरीके से, फिर न कोई जुड़ने की उम्मीद दिखती है,
कैसी होती है ये जिंदगी जिसमें मरते-मरते भी जीना पड़ता है
मन तो चाहता होगा न खुद से मरने का, फिर ये समाज भी तो नहीं मरने देता है,
टूट जाता है लड़खड़ाता है फिर भी वो आगे बढ़ता जाता है,
थोड़ी उम्मीद रहती होगी शायद कि किसी का तो भला होता होगा, बहुत नहीं तो थोड़ा होता होगा।
क्या वो नम आँखे, टूटी जुबान, लड़खड़ाता शरीर किसी को नहीं दिखता होगा,
शायद दिखता तो होगा लेकिन वो भी इसी हालात मैं होता होगा,
तपती रेत से भूखे पेट से वो क्या न सोचता होगा,
कोई दो रोटी भी देदे तो उसे वो फरिस्ता समझता होगा,
आखिर क्या है वजह, इस भुखमरी और गरीबी की शायद कोई तो इस बारे में सोचता होगा, और केवल सोचकर ही छोड़ देता होगा,
आज हम सब शपथ लेते है इस बात की,
जितनी होगी उतनी करेंगे, मदद गरीबों की।।
© Rohi