...

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जिंदगी
एक खतरनाक सच में
जब मैंने झूठ छुपाया
उसी वक्त हो गई थी पहली दफ़ा
मेरी मृत्यु।

मर जाने के बाद
फिर जीया तो जीया नहीं
बल्कि घुटा लगातार।

घुटन से पीड़ित
फिर मरा हर रोज़
और ढूंढता रहा जिंदगी।

जीने की खोज में
निकल आया बहुत दूर
जो पास में ही था।

इतने करीब से
जानते ही खुद को
फिर आयी घड़ी
मरे हुए के मरने की।

अब मरने का औचित्य
था एक खतरनाक झूठ
जिसमें छुपाया गया था
एक साधारण सत्य।

दोबारा मरने के लिए
झूठ का सहारा लेना था
खुद के साथ धोखा।

मगर सोचा
क्या यह नहीं होगा
औरों से धोखा।

इसी धोखाधड़ी को
न होने देने के लिए
मैंने रखी अपनी आखिरी बात।

वो बात जो
ना सच थी ना झूठ
वह थी मेरे होने और ना होने
के बीच के उस परम अकथनीय और
निराकार जीवन की
सबसे लाजमी बात।

© Akash dey