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अंतर्द्वंद्व
अंतर्द्वंद
- श्रद्धा

तुम कुछ कहोगे नही
नही
सब चला गया है सब कुछ खत्म हो गया है क्या तुम अब भी नहीं बदलोगे
छोड़ क्यों नही देते ये ज़िद
नंदिता ने खिड़की पर लगे नीले और सफेद पर्दों के बीच से बाहर नजर डाली...लोग कह रहे हैं कि तुम बदल जाओगे और बोलने लगोगे वो जो वो बोलवाना चाहेंगे तुमसे
अभिजीत ने नंदिता को बड़े गौर से देखा जैसे की एक पल में वो बिलकुल बदल चुकी है और भूल गई है उस अभिजीत को जिससे उसने उसके उसूलों के लिए प्रेम किया था और संशय से बोला
तुम्हे भी ऐसा लगता है कि मैं बदल जाऊंगा, नंदिता l

तुम्हारे पास दूसरा विकल्प है ??

रोजी रोटी की समस्या भी होती तो भी मैं न बदलता I ये लड़ाई मैने यूंही तो न शुरू की थी । कुछ नही भी है शेष लेकिन जो शेष है वही बहुत है मेरे लिए l मैं सड़क के लोगो की बात सड़क पर चिल्ला कर करूंगा l उनके शीश महल कांपेंगे तुम देखना

नंदिता ने अपनी सोई हुई नन्ही बच्ची के सर पर हाथ फेरते हुए कहा मुझे नहीं पता कल क्या होगा पीछे देखती हूं तो नाराज पिता को पाती हूं जिनके लाख इनकार पर भी मैने तुम्हारा हाथ थामा था और आगे कुछ समझ नहीं आता सिवाय इस अंधेरे के मेरा न सही तो मिष्ठी का सोचो ।।।

मैं इसके जैसे और बच्चों का भी भविष्य सोचता हूं

' तुम समझ नही रहे होl ' नंदिता ने खीझते हुए कहा

'और सब नही समझ रहे हैं तुम ये नही समझती या समझना नही चाहती '

इसी अर्थ को ढूंढने में चल रही बहस के बीच एक पत्थर आ कर खिड़की पर लगा नंदिता डर गई और मिष्टी को अपने सीने से लगाकर अंदर के कमरे में तेजी से भागी l

अभिजीत और मजूमदार दोनो ही एक दूसरे की ओर देखने लगे, अभिजीत आगे बढ़ने ही वाला था की मजूमदार ने उसे रोक दिया और परदे की ओट से बाहर देखा नीचे एक बड़ा हुजूम था आक्रामक लोगों का महिलाए वृद्ध और युवा जिनको अभिजीत कहता था की मार्ग से भटके हुए पथिक या गुमराह l कही धू धू कर उसका पुतला जल रहा था तो कहीं नारे बाजी जो पत्थर बाजी में तब्दील हो रही थी नीचे गार्ड ने रोक रखा था नही तो वो लोग एक पल में अंदर आकर सब खत्म कर जाते l नीचे से ऊपर पत्थर फेंकना आसान नहीं है इसलिए बमुश्किल एक या दो ही ऊपर आ पाए

ये झूठा है साथियों सारा फसाद इसने खड़ा किया है एक सत्तर साल के बुजुर्ग बोल रहे थे और तभी उनको धक्का देते हुए एक औरत आई हमारे धर्म रीति रिवाज सब कुछ इसको बुरा लगता है शत्रु है ये धर्म का



मजूमदार ने बाहर की स्थिति को भांप लिया और तुरंत पुलिस स्टेशन फोन कर अभिजीत की सिक्योरिटी की मांग की मजूमदार का चैनल भले ही बंद गया हो लेकिन फिर भी आईपीएस शर्मा जैसे लोग उनकी बात कभी नही टालते थोड़ी ही देर में सब शांत हो गया वहां जहां सुबह से आगजनी गलियां शोर शराबा था वहां अब एक सन्नाटा था और एक अंधेरा जिसने शहर ही नही शहर में रह रहे हर इंसान के ज़हन में अपना घर बना लिया था

अभिजीत को नींद कैसे आ सकती थी अगर वो सो जायेगा तो जगाएगा कौन रात के ११ बज रहे थे और अभिजीत अपने पुराने समय के मित्र विश्वजीत से फोन पर बात करने में व्यस्त था

भाई , जो हुआ और जो हो रहा है समझ से परे है लेकिन मुझे इसका अंदाजा था कौन बचा है भाई मैंने तो अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया है तुम तो लेखक हो कलम चलाओ

तुम्हे लगता है लिखना आसान होगा क्या किताबों को वो नही सेंसर करेंगे
और कौन पढ़ेगा और अगर किसी तरीके से निकाल भी दूं तो भी मैं या मेरा परिवार सुरक्षित रहेगा इसकी क्या गारंटी है

तो भाई क्या करोगे मेहता की तरह ईमान का सौदा करोगे जहां तक मैं तुम्हे जानता हूं तुम अटल हो मित्र तुम नही बदल सकते






रात के तीन बज चुके थे. हर तरफ एक खामोशी थी उसने फिर से पर्दा खिसकाया और बाहर देखा सारा शहर सोया था

सोए हुए लोग नही जानते की कोई जाग रहा है और प्रतीक्षा में हैं उनके उनके उठने की ये निद्रा चिरनिद्रा तो नही ...
वापस अपनी मेज के पास लौट आया मेज के ऊपर बुक शेल्फ थी और वहीं बीच में मेहरून रंग की गीता प्रेस की पुरानी डायरी जिसके पेज भी अब पीले पड़ने लगे थे उसने फिर से वही डायरी उठाई और लिखने लग गया उसके आखिरी पेज पर नई तारीख के साथ वो दिल में उठते हर तूफान को लिखता था वो बेबाक था लेकिन व्यक्तिगत मामलों में उसका संकोच हावी हो जाता तो वो डायरी पर लिख देता l उसने डायरी के पेज पलटे और समेटने लगा गुजरी यादों को

३० मई २०००
जाने क्यों मैं आजकल गीत सुनने लगा हूं ...कविताएं पढ़ने लगा हूं मुझे अब pol science से ज्यादा साहित्य भाने लगा है लेकिन इंग्लिश समझ में नहीं आती हिंदी भाषी हूं ना बिहारी नंदिता कहां और में कहां

१५ जून २०००
क्या भाषा भी दीवार बन सकती है आज चाहा नंदिता से बात करूं लेकिन बंगाली मुझे आती नही और जब अंग्रेजी में मै प्रयास करता हूं तो वो हंसने लग जाती है

३० जुलाई २०००

आज नंदिता खुद मेरे पास आई मैरून सलवार सूट में और मुझसे टूटी फूटी हिंदी में बात की मुझे हंसी आ रही थी लेकिन मैने इस हंसी को दबाए रखा और उससे ज्यादा मुझे उसपर प्यार आ रहा था

आज २४ नवंबर २००२

पिताजी नाराज हैं बार बार खत लिख चुका हूं नही जवाब देते मां भी तो नाराज थी मान गई मेरी खातिर सब कुछ भूलकर जात पात सबकुछ अपना लिया नंदिता को और पिता जी नाराज हैं मैने घर के कारोबार में उनका साथ न दिया और चला आया यहां दिल्ली ...बार बार बुलाने पर भी मैं न गया ऐसा नहीं हैं कि मैं उनके साथ नही हमेशा हूं लेकिन मेरे भी कुछ सपने हैं

६ अगस्त २००४

आज के ही दिन घर में खुशियों का रॉकेट गिरा नन्ही परी आई है

इसी तरह पेजेस पलटते पलटते कभी मुस्कुराते कभी मायूस होते वो फिर एक पेज पर जाकर रुक गया

हमारे जैसे न जाने कितने लोग अपने सपनो की तलाश में गांव से बड़े शहर आते हैं रोजी रोटी की तलाश में और दिल्ली में तो लगता है सबका दिल लगता है रोजाना ब्लू लाइन्स में धक्के खाते कितनो की तो जेब कट जाती है दोस्तों से उधार लेकर महीना बीतता है आज मुलाकात हुई मधुबनी से आए मयंक से एडहॉक पर श्रीराम कॉलेज में हिंदी साहित्य पढ़ा रहा है और जहां वो रहता है वहां मेरे जैसे लंबे कद के आदमी का खड़ा हो पाना भी मुश्किल है आठ बाई आठ के दरबे नुमा कमरे में एक तरफ तख्त पड़ा है वही खूंटी पर उसके कुछ कपड़े हैं और पास में एक सूटकेस दूसरी दीवार की सारी अलमारियों पर सिर्फ किताबें हैं और कुछ नही मयंक खुल कर बोलता है और खुल कर हंसता है नौकरी के पक्की होने के इंतजार में है


अभिजीत पुरानी यादों में खोया था और कुछ पल के लिए तो जैसे भूल गया था उस भूचाल को जिसने उसकी बुनियाद हिलाने की कोशिश की । दूसरी तरफ उम्र के ६५ वर्ष पूर्ण कर चुके मजूमदार l मजूमदार दूरदर्शी आदमी थे और उन चीजों को आसानी से भांप जाते थे जो कोई सोच भी नही सकता था जब अभिजीत सिहानियां के खिलाफ खबरें इकठ्ठा कर रहा था तभी उन्होंने उसे सतर्क किया था

दुनिया दो तरीके की है ये विचार और आदर्श भूखे आदमी नही समझते जानते हो न अभिजीत और एक और बात ये मोटी मोटी किताबें तुम कहते हो क्रांति ले आएंगी कौन लायेगा क्रांति। ये किताबें सबके लिए नही है जो पढ़ सकते हैं वो पढ़ते नही है और न पढ़ेंगे किताबों से इतर एक दुनिया है ये सब वही रहते हैं

ऐसा नहीं था कि मजूमदार को अभिजीत पर भरोसा नहीं था अभिजीत में उनको अपनी युवा जीवन की झलक दिखती थी वही जोश वही तेवर सब कुछ लेकिन मजूमदार ने जीवन में जो उतार चढ़ाव देखे थे वो नही चाहते थे की अभिजीत भी वो झेले मजूमदार ने विवाह नही किया परिवार की जिम्मेदारी नहीं थी लेकिन अभिजीत के आगे कच्ची गृहस्ती थी चाहे जितना भी धन क्यों न हो बच्चों को उचित परवरिश एक अच्छे परिवेश में मिलती है
मजूमदार के बाल अब सफेदी आ गई थी अब वो दुनिया समझ चुके थे और समाज को बदलने और प्रगतिशील होने की सारी उम्मीदें छोड़ चुके थे । उन्होंने अभिजीत के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा

मुझे तुम पर भरोसा है और में तुम्हारे साथ हूं पर कितनी दूर तक साथ निभा पाऊंगा मुझे नहीं पता


आज उस बात को चार महीने बीत गए . आसिफ के असामयिक निधन से वैसे ही वो स्तब्ध था कि हर दूसरे चौथे दिन इस्तीफों की लाइन लगने लगी नए साथियों में वो उम्मीद ढूंढता था वो भी चकाचौंध में खो गए लेकिन वो फिर भी अडिग रहा " मुझे कोई फर्क नही पड़ता पिताजी भी इसी बात को लेकर परेशान रहने लगे हैं मां को भी डर लगता है कि कोई मुझे मार डालेगा हर शाम सात बजे बेबाक अभिजीत में मां मेरी रिपोर्ट देखती और तुरंत मुझे फोन करती और डांटती कभी कभी तो रोने लग जाती और नंदिता उसने बहुत साथ दिया मेरा लेकिन अब वो भी डरने लगी है

खिड़की से बाहर का अंधेरा मद्धम हो रहा है और दूर कहीं क्षितिज पर उजाले की किरण प्रस्फुटित हो रही है अभिजीत की आंखों से उदासी छट रही है वो रुकेगा नही ठीक उस भास्कर की तरह जिसको कोई भी न रोक पाया सत्य भी तो भास्कर ही है कोई साथ से या ना दे सिहानिया के खिलाफ वो अकेले लड़ेगा वो उन लोगो के लिए लड़ेगा जो उसकी तरफ आज भी आस से देखते हैं वो बोलेगा लेकिन कौन सुनेगा वो पैंफलेट छपवाएगा वो जनता को आगाह करेगा लेकिन सुनना तो कोई चाहता ही नही कितने बच्चे उस अस्पताल में ऑक्सीजन खत्म होने से मर गए कितनी लड़कियां आज भी इंसाफ के लिए लड़ रही हैं कितने बेरोजगार नौकरिबकी तलाश में दर बदर घूम रहे हैं और कितने बेगुनाह जेल के सीक्चों में इंसाफ मिलने की दुआ कर रहे हैं ये मानते है की ईश्वर है इंसाफ होगा लेकिन अगर मैं रुक गया तो शायद इनका ईश्वर से भी विश्वास उठ जाएगा मैं ईश्वर नही आम इंसान हूं लेकिन मैं इनको इंसाफ दिलाना चाहता हूं

कोई नही सुनेगा तुम्हारी पागल कहेंगे लोग तुम्हे तुम्हारा मजाक बनाएंगे एक दम से आवाज आई


तो क्या हर समझदार आदमी पागल है हां इतिहास तो ऐसा ही रहा है सुकरात को लोगो ने जहर का प्याला दे दिया तो सुकरात के विचारों को मार डाला l सुकरात जैसे लोग खतरा होते है अराजक सत्ता के लिए इसलिए उनका दमन कर दिया जाता है क्या सुकरात का दमन हुआ नही असंख्य सुकरात पैदा हो गए तो तुम्हारा अंत कहां
हां मेरा अंत कहा नही है ये मेरा अंत मैं एक विचार हूं मैं मर नही सकता मैं खड़ा रहूंगा पेपर बंद करेंगे चैनल बंद करेंगे मैं सोशल मीडिया पर बोलूंगा सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाएंगे मैं सड़कों पर चिल्लाऊंगा लेकिन मैं बोलता रहूंगा आखिरी सांस तक
और जब ये अंतरद्वंद चल रहा था सुबह की किरण खिड़की से होती हुई उसके कमरे में दस्तक दे चुकी थी

- श्रद्धा गुप्ता











© Shraddha S Sahu