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बात कुछ उन दिनों की(ज़िन्दगी एक सवाल)
बात कुछ उन दिनों की है शायद वो कुछ लोग थे ,नहीं शायद वो एक ज़िन्दगी है कहते हुए पर्सू आगे बढ़ रहे थे, साथ वो अपनी परछाई से बातें किए जा रहे थे क्या यह सच है? के हर इंसान अपनी नासमझ सी उलझी हुई बातों में खुद को कमजोर और लाचार समझते है । की वो सिर्फ अपने हक की ज़िन्दगी जिए जा रहे जो होता है। वह हमारे परमेश्वर करते है क्या सच में इतनी नासमझ बुद्धि है उन इंसानों में जो इसका उलंघन करते है ये सोचते हुए पर्सू अचानक से रुकते हुए अपनी परछाई देखते हैं और एक टक उस पकड़ने की कोशिश करते है पर वो तो थी परछाई कहां हांथ आती ।वो थोड़ा घबराए और उठे और कहने लगे मूर्ख है वो इंसान जो समझ नहीं पाते परमेश्वर हमें रास्ता दिखाते है चलना हमे खुद होता है ज़िन्दगी की डोर हमारे हांथ है । वैसा जैसा हम सोचते है नहीं ये पंछी की तरह है बस पंख हमे खुद लगाना होता है मूर्ख है वो इंसान जो नासमझी की बातें करता है। की ज़िन्दगी कुछ भी नहीं है वो तो एक सवाल है जो हम सबके अंदर है की इसका प्रयोग हमे कैसे करना है कैसे चलना है किस राह पर हम सही जा रहे है और को सा राह हमारे लिए सही रहेगा। ये बात अक्सर वो भूल जाया करते है कि ये वो सवाल है जिसे हमे ही समझना है परमेश्वर तो हमे उन के बारे में बतलाया है कि संसार के हर प्राणी में वो करने कि छमता है जो कोई और प्राणी नहीं कर सकता यही तो बात है की हम अपनी परछाई को छू नहीं सकते पकड़ नहीं सकते ठीक उसी तरह ये ज़िन्दगी है हमारी कभी कोई इसे रोक नहीं सकता पकड़ नहीं सकता ।एक लच्छया कि तरह अपनी डगर पर कायम है ये ज़िन्दगी एक सवाल ही तो ये सोचते हुए पर्सू घर की ओर निकल जाता है।


"ज़िन्दगी भी कितनी अजीब पहेली है।
जीने की चाह में ये सवाल कई है।।
मिले हर मुश्किलों में वो जज़्बा इसमें।
ज़िन्दगी नहीं ये तो एक सवाल है।।