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Hindi Story : भरोसा हैं...
Synopsis & extended note : This is a fictional autobiography of an Indian village-boy who happens to settle in a big Indian metro city, and how he saves himself from all the ills of that city. I'd have posted this story in a poem category, but I felt it doesn't qualify as a poem, so I uploaded it as a story.

It may feel very sanskari & preachy to many people, but I never intended to be morally self-righteous or morally-superior to anyone else. Nor do I wish to see someone else's morality with contempt. And I am by no means a hardlined sanskari in a literal sense, though I'm somewhat sanskari :D

Image-Courtesy : The image for this story was taken from the website Unsplash, which hosts millions of royalty-free images, and it solely belongs to the user named 'Anelale Nájera' from that website.
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भरोसा हैं I

वो इक दिन में मेरा छोटा गांव छोड़के कॉलेज करने उस शहर गया जिसे हम-सब 'मायानगरी' केहते हैं I

जाने से पहले मेरी बूढ़ी दादी मेरे सीर पर हाथ रखकर बोली,

"बेटे तुजपे भरोसा हैं I"

उनकी हां में हा मिलाते हुए मेरे माँ-बाप भी बोले,

"बेटे भरोसा मत तोडना I"

फिर वो मायानगरी में मुझे कही दोस्त मिले I

उन दोस्तों में से एक 'सनी' बोला,

भाई आज शाम 'दारू-पार्टी' का इंतजाम हैं,

तुम भी आ जाना I

में बोला नहीं आ सकता,

मुझपे किसी को भरोसा हैं I

वो हसके बोला,

दोस्त जिंदगी सिर्फ एक बार मिलती हैं,

उसे जी भर के जी लेना चाहिए I

तो में भी बोला,

भाई नशा करके कौनसी जिंदगी को जिया जाया हैं?

जरा आँखे खोलो, आजु-बाजू देखो,

नशा किये बिना भी लाखो लोग हसीं-ख़ुशी जी रहे हैं I

फिर इक दिन में मेरे दोस्त 'रॉकी' के साथ होटल गया I

वों बोला भाई तुम अपना 'घास-फुस' खाना छोड़ो,

और एक बार 'गोश्त' खा कर देखो I

तो में रॉकी को बोला,

भाई में नहीं खा सकता,

मुझपे किसी को भरोसा हैं I

वों चिढ खा के बोला,

बंधु गोश्त खाना जरूरी भी...