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नशे की रात ढल गयी-43
नशे की रात ढल गयी (43) कभी-कभी किसी को देखकर हैरत में पड़ जाता हूँ कि क्या यह वही आदमी है जो कभी मेरे इतने करीब था । क्या समय और हालात धीरे-धीरे किसी को किसी की जिंदगी से इतने दूर भी ले जा सकते हैं कि उसके लिए दिल के किसी कोने में अब थोड़ी-सी भी जगह न बचे। शायद ऐसा हीं है, जिंदगी इसी को कहते हैं या जिंदगी इसी का नाम है। मैं अपने बचपन के मास्टर साहब की बात कर रहा हूँ। यह भी एक विचित्र संयोग है कि हम दोनों हमनाम रहे और इकलौते भी। लेकिन यह कैसी विडंबना है कि हम एक हीं मोहल्ले में रहते हुए भी अब एक दूसरे से नहीं मिल पाते। शायद रिश्तों में अब वो पहली-सी गर्माहट नहीं रही । छट्ठे-छमाही किसी शादी या पार्टी-फंक्शन में भेंट हो जाय तो हो जाय। मेरी जिंदगी में उनका आगमन तब हुआ जब मैं बहुत छोटा-सा था, कैशोर्य की दहलीज के बिल्कुल आसपास । मेरे मन में मास्टर की इमेज बस यही थी कि उनके हाथों में एक छड़ी भी अनिवार्य रूप से होती है। मजे की बात यह कि वो छड़ी भी हमीं से बनवाई जाती । अमूमन मास्टर हीं हमें सुझाते कि अमुक स्थान पर एक बढ़िया खँजूर का छरहरा पेड़ है, वहीं से काटना । फिर तो उसे काट-छिलकर हमीं मार खाने लायक भी बनाते । भोजपुरी में एक शब्द है-मरखाह। इस विशेषण को किसी भी शब्द के आगे जोड़ दें ,वह शब्द आप-से-आप हिंसक हो उठता है। मरखाह बैल,मरखाह गाय ,मरखाह मास्टर -इन सबसे मेरा भी साबका पड़ा है और जहाँ तक मुझे याद है कई बार पड़ा है। जब मैं तीसरे-चौथे में एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था तो एक ऐसे हीं मास्टर से पाला पड़ा था। उन्होंने दंड देने का एक नायाब तरीका खोज निकाला था कि साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। वह दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जोड़वाते और उसके उपर डस्टर से निरंतर वार करते जाते । अगर नाखून बढ़े हों,तो चोट दोगुनी हो जाती। उस स्कूल में मैं जबतक रहा,अपने नाखून कभी बढ़ने...