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मन की दूरियां
एक विद्यालय में गीता अध्यापक हैं। उसके ही विद्यालय में पढ़ाने वाली अन्य सहायक कर्मियों के साथ उसकी अच्छी दोस्ती थी ‌। गीता बहुत ही तुनक मिजाज की थी। हां पर मन की साफ़ थी। अगर उसे कुछ अच्छा नहीं लगता, तो वह पीठ पीछे कहने की बजाय साफ़ मुंह पर कह देती। जिससे लोग उसे पसंद नहीं करते थे। जैसा कि सभी जानते हैं अगर कोई गलत भी है, परंतु आप उसे गलत कहने के बजाय अगर आप उसकी हां में हां मिलाए, तो लोग आपको अच्छा कहेंगे। जो गीता को बिल्कुल पसंद नहीं था। आजकल आपको लगभग ऐसे ही लोग मिलेंगे जो ईश्वर के द्वारा प्रदान किए गए सुंदर चेहरे के ऊपर पर मुखौटा लगाए घूमते हैं। ऐसे लोग लोग आपके चारों तरफ भरे होंगे। जो आपके सामने शहद से भी मीठा बोलेंगे, और आपके पीछे आपको छूरा भोंकेंगे। कोशिश करनी चाहिए कि हम ऐसे लोगों से बच के रहे। परंतु कई बार कोशिश भी रंग नहीं लाती।
गीता अपनी आदत से मजबूर थी, वह हमेशा कोशिश करती कि वह कभी किसी का बुरा ना करें। उसकी साथी शिल्पी ने नया घर बनवाया था। अपने नए घर के गृह प्रवेश में उसने अपने सभी मित्रों को बुलाया। उसके सभी मित्र उसके इस खुशी में शामिल होने उसके गृह प्रवेश की पूजा में गए। कुछ दिनों बाद उसकी सहेली गीता की सर्जरी होने वाली थी। वह अस्पताल में भर्ती थी उसके अन्य मित्र तो उससे मिलने गए परंतु शिल्पी नहीं। उसने यह कहकर अस्पताल न आने का बहाना बताया कि गृह प्रवेश में मिले गए उपहार को खोलने की परंपरा है। परंतु जब इस बात की जानकारी उसकी मित्र गीता को पता चली, तो वह मन ही मन बहुत दुखी हुई। ऐसे कई अवसर आए जब उसका दिल टूटा, परंतु वह हमेशा अपने आप को संभाल लेती। परंतु एक दिन उसने इस दोस्ती का ही अंत कर दिया। कहते हैं ना कि पाप का घड़ा फूट जाता है। ऐसे ही उसकी सहनशक्ति जवाब दे गई। और वह हमेशा के लिए उनसे दूर चली गई। उसने सोचा ऐसी दोस्ती को का क्या अर्थ जब हम किसी को समझे ही ना, ‌ उसका आदर ही ना करें।