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पागल
एक बार एक पढ़ा लिखा पागल, पागलखाने से डॉक्टर के कपड़े चुरा कर भाग निकला।

अच्छे कपड़ों में उसका पागलपन दब गया था। चलते-चलते वह एक रेस्त्रां के सामने पहुँच गया।

शीशे के पार से खाना खाते लोगों को देखा उसे भूख भी लग आयी।तभी एक परिवार अंदर जा रहा था, उनके साथ वह भी डायनिंग हॉल में पहुँच गया।

अंदर आज एक पार्टी चल रही थी। उसने प्लेट उठाई और मनपसंद भोजन का आनंद लिया।

फिर किसी को उसके हाव-भाव से उस पर शक़ हो गया। वे उससे पूछताछ करने लगे तो मैनेजर साहब भी वहीं आ गये.......“तुम कौन हो और यहाँ कैसे घुस आये?”

“हम यहाँ के राजा हैं, सब हमारा है। तुम हमारे राज्य में कैसे घुस आये?” पागल ने तेवर दिखाये।

मैनेजर ने पुलिस बुला ली।

“तुमने यहाँ घुस कर खाना खाया, चलो जेल में बंद करेंगे, तुम्हें,” दारोगाजी ने उसकी बाँह पकड़नी चाही।

“तुम हमारे मुलाज़िम हो दारोगा। इन सबको गिरफ्तार करके कारावास में डालो और हमारा रथ मँगवाओ,” पागल अधिक मज़बूत और फुर्तीला था।

दारोगा पागल की बात पर हँसने लगा, तो पागल ने लपक कर उसकी गर्दन पकड़ ली। पागल की बलिष्ठ पकड़ से दारोगा छूट न पाया। बदले हालात देखकर सबके होश उड़ गये थे। पागल ने दारोगा के हाथ से लाठी छीन ली और तलवार की तरह घुमाने लगा।

तभी वहाँ से पागलखाने का एक कर्मचारी गुज़रा तो उसने पागल को पहचान लिया—“महाराज, आप किस पागलखाने में आ गये हैं। छोड़िये इसे, ये पागल खुद को दारोगा समझता है, इसे अभी पागलखाने भिजवा देता हूँ। आप अपने महल में चलिये, आइये महाराज”।

“हमारे राज्य में पागल क्या ऐसे घूमने लगे हैं?” पागल ने दारोगा को छोड़ा और पागलखाने के कर्मचारी के साथ चल दिया।

दारोगा ने हाथ जोड़ कर उस कर्मचारी का आभार प्रकट किया और गर्दन सहलाते हुए अपने सिपाहियों से मुख़ातिब हुआ—

याद रखें.....“ एक पागल को पागल बनकर ही सम्भाला जा सकता है ”।
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