...

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अनजानी सी राहें ये..
मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं और वहीं उस चाय की दुकान की बेंच पर बैठ गयी। वो दरअसल उस पथरीली धूल भरी सड़क के किनारे स्थित एक टपरी भर थी।

मैं उस ऊबड़-खाबड़, पथरीले और धूल भरे इलाके की खड़ी राहों पर पिछले लगातार डेढ़ घंटे से चली जा रही थी।
शुरुआत में तो जोश एकदम हाई था लेकिन जैसे जैसे समय बीता, मेरे पांव उखड़ने लगे.. साँसें फूल रहीं थीं और हिम्मत जवाब देने लगी थी। हर गुजरते समय के साथ मुझे अपने पैरों में झटके जैसा महसूस होने लगा था। हर कदम के साथ वे भारी होते जा रहे थे।
मैं उन टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होते हुए उस विशाल पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी तब.. लेकिन डेढ़ घंटे बीत जाने पर एहसास हुआ कि अब बस.. रुक जाओ कुछ पल यहीं.. कुछ ज़रूरी साँसें इन वादियों से उधार ले लो रुक के.. क्योंकि अभी ये सफ़र लंबा है..। ये यात्रा कठिन है।

अपने अंदर से ये आवाज़ उठते ही मैंने एक ब्रेक लेने का फैसला लिया।

इधर-उधर नज़रें घुमायीं तो मुझे वो चाय की टपरी दिखी।
हांफते हुए मैं उस तक पहुंची और मुश्किल से टपरी वाले भइया से तर्जनी उंगली से एक का इशारा करते हुए बोली "एक चाय!"
मेरी फूली साँसें देखकर उन्होंने जल्दी हाँ में सिर हिला दिया और चाय चढ़ा दी।
वहीं रखी बेंच पर मैं बैठ गई और सामान्य होने का प्रयास करने लगी।

कुछ ही देर में मेरे सामने भाप उड़ाती वो एक कुल्हड़ चाय रखी थी। उस चाय में घुले इलायची और अदरक जितना अपनी खुशबू बिखेर रहे थे उतना ही खुशबू बिखेर रही थी वो मिट्टी जिससे वो कुल्हड़ बनी थी। मिट्टी की वो सौंधी-सौंधी सी खुशबू जब हवाओं में घुली मुझ तक पहुँच रही थी तो एक अलग ही एहसास हो रहा था.. सुकून भरा अहसास। मुझे एक पल को तो ऐसा लगा जैसे मैं किसी...