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"लालटेन"
एक बार गुप्ता जी को अपने ही गांव के मुखिया जी के यहां दावत पर जाना था। बेचारे गुप्ता जी इसके लिए बड़े उत्साहित थे और खुश भी ।

उस वक़्त जमाना पुराना था , बिजली , बल्ब , स्ट्रीट लाइट वगैरह तब हर इलाक़े , गांव या कस्बे में नहीं हुआ करती थी।

उन्होंने सोचा कि आज तो बहुत देर रात तक शेरोशायरी , मौसिकी और शराब की महफ़िल जमेगी , इसलिए अंधेरे में घर लौटने में दिक्कत हो सकती है तो क्यूँ न घर से अपना लालटेन भी साथ लेकर चलें।

फिर जैसा कि उन्होंने सोचा था , महफ़िल वैसी ही बहुत देर रात तक चली।

गुप्ता जी जैसे तैसे नशे में टुन्न होकर घर लौटे । बेचारे अपने घर आकर दोपहर तक सोते रहे।

शाम को उनकी गांव के मुखिया जी से मुलाकात हुई तो उन्होंने गुप्ता जी से कहा... " जनाब , हमारे आने से आपके आराम में कहीं कोई खलल तो नहीं पड़ा न ? "

गुप्ता जी :- जी नहीं मुखिया जी...बिलकुल भी नहीं , कहिए , कैसे याद किया....??

मुखिया जी :- कैसी रही कल की दावत ? रात के अंधेरे में घर पहुंचने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई न आपको ?

गुप्ता जी : " साहब , कैसा अंधेरा ?? लालटेन तो थी मेरे पास औऱ रही बात दावत की तो वो तो बहुत ही उम्दा थी । महफ़िल तो और भी बेहतरीन थी। "

मुखिया जी :" जी शुक्रिया ! वो मैं कह रहा था कि यदि आपको क़भी मेरे घर तरफ़ आना हुआ तो अपनी लालटेन लेते जाइयेगा .....और जो कल रात नशे में आप हमारे घर से तोते का पिंजरा उठा ले आए थे , वो फ़िलहाल मुझें लौटा दीजिए...।

© JUGNU