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मेरे बेमेल जूते
" मेरे बेमेल जूते"

         आप में से कई लोगों ने बचपन में हरिशंकर परसाई जी द्वारा लिखित "प्रेम चंद जी के फटे जूते"कहानी अवश्य पढ़ी होगी । यदि नहीं पढ़ी हो तो संदर्भ के लिए बताना चाहूँगा कि कक्षा नौ की हिंदी की "क्षितिज" नाम की पुस्तक में आप इस कहानी का अवलोकन कर सकते हैं । प्रेमचंद एवं परसाई जी हिंदी जगत के नामचीन लेखक हैं तो उनका साहित्य भी उनके नाम के अनुरूप सर्वोत्तम है । घटनाएँ सच्ची न भी रही हों पर मैं स्वयं को प्रेमचंद की कहानी के पात्रों के करीब मानता रहा हूँ । कभी-कभार ठीक वैसी ही घटनाओं एवं भावनाओं से मैं स्वयं भी उहापोह की स्थिति में रहता हूँ । अब "मेरे बेमेल जूतों" की बात को ही देख लो इसमें ऊँची दुकानों के फीके पकवान जैसी बू झलक जाती है । हम विश्वास से जिन चमकते शो रूमों की ओर आकर्षित होते हैं वहाँ भी कभी-कभी माल में फुटपाथ या रेहड़ी-पटरी वाली गुणवत्ता दिख जाती है । "मेरे बेमेल जूते"कहानी भी ऐसी ही हकीकत बयाँ करती है । पंद्रह मार्च,दिन मंगलवार सन् 2016 की बात है | मेरे चरण कमलों ने मेरे हृदय से एक जोड़ी नए जूतों की दर्ख्वाश्त लगाई ।
        एक तो मार्च का महीना,सालभर के खर्चों का हिसाब-किताब सरकार को देना होता है । ऊपर से अप्रैल महीने में नंन्हें नौनिहालों को अगली कक्षा में स्कूल भेजने के लिए जेब ढीली करने का बोझ । मँहगाई की इस सुरसा का मुँह रोंकें भी तो कैसे ? सरकारी तनख्वाह में आमद बढ़ने से पहले मँहगाई की सुरसा आगे बढ़ आती है । बच्चों ने सुना तो उनका भी दिल एक-एक जोड़ी नए जूतों की आस में बल्लियाँ उछलने लगा। अब माँ-बाप का शौक तो बच्चों के शौक पूरे करन में ही पूरे हो जाते हैं । अपने पैरों में तो फटे-पुराने भी चल जाएँगे,पर ननकू के पैर में तो एक जोड़ी अच्छे ब्राँड के जूते बहुत खूब जमेंगे। फिर ननकू ही क्यों ? क्या दोनों बेटियाँ मेरे लिए ननकू से कम हैं ? बेटियाँ तो शादी तक ही माँ-बाप के घर की शोभा बढ़ाती हैं । तो एक बार मन ने करवट बदली और निश्चय किया कि नये जूते आयींगे तो चारों के लिए । दफ्तर से घर पहुँचा और श्रीमती जी को तीनों बच्चों के साथ बाजार चलने को कहा । श्रीमती जी ने चाय का प्याला हाथ में पकड़ाते हुए शंकालु नज़र से देखकर पूछा,"आधा महीना बीत गया है,तनख्वाह किराए-भाड़े एवं राशन पानी में निकल चुकी है,ऐसे में पूरा कुनबा लेकर क्या खरीददारी करोगे ? आप चले जाइए,और लोग अगले माह चले जाएंगे" ।
                यह सुनते ही मेरी जेब का पुरुषत्व जाग गया । अब मेरा अनुरोध आदेश में बदल गया और आदेश पालन करना ही सनातनी स्त्रियों का परम् कर्तव्य माना गया है । सभी लोग तैयार होकर देहरादून की पलटन बाजार की ओर विक्रम से निकल पड़े। घण्टाघर की घड़ी में शाम के छः बजे थे । पलटन बाजार का अंतिम छोर घंटाघर से सटा हुआ है । घंटाघर पर उतरकर हम पलटन बाजार की ओर निकल पड़े | यहाँ ब्राँडेड जूते-चप्पल एवं परिधानों की कई बड़े-बड़े शो रूम हैं । दो-चार बड़ी-बड़ी दुकानों में मोल-भाव किया पर बात नहीं बनी । थोड़ा आगे चलकर आए तो बाएँ हाथ पर न्यू रीगल शूज नाम से जूतों की एक बड़ी दुकान है । पूरा कुनबा दुकान में घुसा तो दुकानदार एवं सेल्समैन चौकन्ने हो गए । सस्ते-मँहगे कई जोड़े जूते चप्पलों में से रेड-चीप की एक जोड़ी अपने लिए पसंद की । सेल्समैन ने कई जोड़े जूतों में से इकचालिस यानि सात नम्बर का जूता पैर में पहनाया जो पैर में कुछ दबाव डाल रहा था । मैंने बयालीस यानी आठ नम्बर की जोड़ी निकलवाई और पहनकर देखी और बच्चों को भी दिखाई । बुजुर्गों की कहावत है कि "खावो अपनी पसंद का और पहनों दूसरों की पसंद का"इसी सूत्र के साथ जूते पसंद करते हुए पैक हो गये।
             फिर ननकू एवं दोनों बेटियों के लिए भी सबकी मिली-जुली पसंद से जूते-एवं चप्पल पसंद हो गये । "जूता डे" के इस मौके पर केवल श्रीमती जी को तिराना मैंने उचित न समझा और उनके न-नुकुर के बाद भी उनके लिए भी एक जोड़ी सैंडिल पसंद कर ली गई । सेल्समैन ने सभी जोड़ियाँ पैक करके बिलिंग काउंटर पर पहुँचा दी । बिल चुकता कर सब लोग खुशी-खुशी घर लौट आये ।वेतनभोगियों को कोई भी चीज मँहगी-सस्ती घर आकर दिखती है । चीज ब्राँडेड और बड़ी दुकानों की हो तो उनके मँहगे होने से अधिक विश्वास उनकी क्वालिटी का हो जाता है । घर आकर एक बार सब लोगों ने अपने जूते-चप्पल पहनकर फिर पैक कर दिए । अगले सप्ताह होली की छुट्टी में मुझे परिवार सहित अपने पैतृक गाँव जाना था । नियत तिथि को रात्रि की बस से सब लोग नये जूते-चप्पल पहनकर गाँव को रवाना हो गये । जूते बड़ी दुकान से पूरे दाम चुका कर लिए थे इसलिए जूतों पर किसी ने ज्यादा ध्यान न दिया । आज दोपहर में लंच के समय जूता निकाला और ध्यान से देखा तो भौचक्क रह गया। क्योंकि पैरों में एक जूता इकचालिस यानि सात नम्बर का और दूसरा बयालीस यानि आठ का पहनकर में दोस्तों से नये जूते की बधाई पंद्रह दिन से ले रहा था ।
                    भूपेन्द्र डोंगरियाल
                      31/03/2016


© भूपेन्द्र डोंगरियाल