लक्ष्मण-रेखा
लक्ष्मण-रेखा
उसने पर्दे की ओट से सब कुछ सुन लिया था।बाबूजी अपने कमरे में माँ को लड़केवालों के साथ हुई बातचीत का सारांश सुना रहे थे।उनके चेहरे पर छायी हुई गहरी उदासी को पढ़कर ही उसने सब कुछ समझ लिया था।लड़केवालों के घर चलने के लिए बाबूजी ने फोन कर भैया को भी गाँव बुला लिया था। भैया एम ए पास कर अब लाॅ की पढ़ाई कर रहे थे। हालांकि लाॅ में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए नौकरी के लिए इधर-उधर हाथ-पैर भी मार रहे थे। लेकिन नौकरी थी कि इनसे बेवफाई किए जाती थी।
उसने खुद भी पटने में रहकर बीए की पढ़ाई की थी।उम्र में वह उनसे सिर्फ दो साल ही छोटी थी। स्नातक की परीक्षा उसने अच्छे अंकों से पास की थी। खासकर मनोविज्ञान में उसे डिसटिंक्सन मिला था।वह इस विषय से ही आगे एमए और पीएचडी भी करना चाहती थी।मगर उसे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर गाँव लौटना पड़ा था। पिता के रिटायर होने के बाद आर्थिक स्थिति पहले जैसी नहीं रह गयी थी।भैया और उसकी पढ़ाई दोनों एक साथ नहीं चल सकती थी। किन्हीं दो में से एक का चुनाव होना था।घर की परिस्थितियों से वह खुद भी तो वाकिफ थी।उससे ज्यादा भैया की पढ़ाई जरूरी थी,बाबूजी की भी यही राय थी।उनकी सोच थी कि बेटी तो ब्याह के बाद ससुराल की हो जाती है।बुढ़ापे का सहारा तो बेटा ही होता है।
छात्रावास छोड़ते समय उसकी आँखें भर आयी थीं।उसके सारे सपनें बिखर-से गए थे।काॅलेज के दिनों में अक्सर वह सोचा करती थी कि एक दिन वह भी अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी।तभी वह लड़की होने की हीन भावना से उबर पायेगी।अपने भीतर लड़का-लड़की का भेदभाव उसने बचपन से ही देखा था।घर में जो विशेष लाड़-प्यार भैया के प्रति रहा है उसे वह बचपन से ही देखती आ रही है।
काॅलेज के दिनों में उसके प्रति भैया के व्यवहार में धीरे-धीरे खुलापन-सा आता गया था।वह बेहिचक अपनी हर बात उससे शेयर करने लगे थे।यहाँ तक कि अपने प्रेम प्रसंगों को भी छुपाया नहीं था।वह अपने क्लासमेट-किसी विनीता नाम की लड़की को चाहने लगे थे जो किसी अन्य जाति से थी। जात-पाॅत के बंधनो को तोड़ पाना अब भी कितना दुष्कर है, वह अक्सर उनसे कहा करती और इस बात को लेकर उनके बीच अक्सर नोक-झोंक भी हो जाया करती। पर उन्हें ये सब उसका वहम और दकियानूस ख्याल भर लगता।दरअसल,वह उसे बेइन्तहा...
उसने पर्दे की ओट से सब कुछ सुन लिया था।बाबूजी अपने कमरे में माँ को लड़केवालों के साथ हुई बातचीत का सारांश सुना रहे थे।उनके चेहरे पर छायी हुई गहरी उदासी को पढ़कर ही उसने सब कुछ समझ लिया था।लड़केवालों के घर चलने के लिए बाबूजी ने फोन कर भैया को भी गाँव बुला लिया था। भैया एम ए पास कर अब लाॅ की पढ़ाई कर रहे थे। हालांकि लाॅ में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए नौकरी के लिए इधर-उधर हाथ-पैर भी मार रहे थे। लेकिन नौकरी थी कि इनसे बेवफाई किए जाती थी।
उसने खुद भी पटने में रहकर बीए की पढ़ाई की थी।उम्र में वह उनसे सिर्फ दो साल ही छोटी थी। स्नातक की परीक्षा उसने अच्छे अंकों से पास की थी। खासकर मनोविज्ञान में उसे डिसटिंक्सन मिला था।वह इस विषय से ही आगे एमए और पीएचडी भी करना चाहती थी।मगर उसे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर गाँव लौटना पड़ा था। पिता के रिटायर होने के बाद आर्थिक स्थिति पहले जैसी नहीं रह गयी थी।भैया और उसकी पढ़ाई दोनों एक साथ नहीं चल सकती थी। किन्हीं दो में से एक का चुनाव होना था।घर की परिस्थितियों से वह खुद भी तो वाकिफ थी।उससे ज्यादा भैया की पढ़ाई जरूरी थी,बाबूजी की भी यही राय थी।उनकी सोच थी कि बेटी तो ब्याह के बाद ससुराल की हो जाती है।बुढ़ापे का सहारा तो बेटा ही होता है।
छात्रावास छोड़ते समय उसकी आँखें भर आयी थीं।उसके सारे सपनें बिखर-से गए थे।काॅलेज के दिनों में अक्सर वह सोचा करती थी कि एक दिन वह भी अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी।तभी वह लड़की होने की हीन भावना से उबर पायेगी।अपने भीतर लड़का-लड़की का भेदभाव उसने बचपन से ही देखा था।घर में जो विशेष लाड़-प्यार भैया के प्रति रहा है उसे वह बचपन से ही देखती आ रही है।
काॅलेज के दिनों में उसके प्रति भैया के व्यवहार में धीरे-धीरे खुलापन-सा आता गया था।वह बेहिचक अपनी हर बात उससे शेयर करने लगे थे।यहाँ तक कि अपने प्रेम प्रसंगों को भी छुपाया नहीं था।वह अपने क्लासमेट-किसी विनीता नाम की लड़की को चाहने लगे थे जो किसी अन्य जाति से थी। जात-पाॅत के बंधनो को तोड़ पाना अब भी कितना दुष्कर है, वह अक्सर उनसे कहा करती और इस बात को लेकर उनके बीच अक्सर नोक-झोंक भी हो जाया करती। पर उन्हें ये सब उसका वहम और दकियानूस ख्याल भर लगता।दरअसल,वह उसे बेइन्तहा...