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हमारी मां(७)
अगले दिन प्रकाश भैय्या सूर्यकांत मामा को लेकर आए।वे सीधे-सादे ,शर्ट-पैंट पहने,सर पर सफेद महाराष्ट्रीयन टोपी लगाकर ,दुबले-पतले सांवले रंग के थे।वे जैसे ही अंदर आए,उन्होंने कहा हमारा सबसे छोटा भाई तभी गुजर गया था।मैं नहीं मानता कि आप मेरी बहन हो।"मम्मी चिल्लाने और रोने वाले अंदाज में बोलीं"सारा गांव के लोग मान गये हैं हर कोई कह रहा है तुम गंगाबाई जैसी दिखती हो।फिर आप क्यों नहीं मान रहे हैं?" क्या मैं आपके मां जैसी नहीं दिखती हूं?" उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।सभी ने कहा पर वे माने नहीं।तभी अचानक मम्मी ने पूछा"क्या आप चंद्रकांत मास्टर को जानते हैं?"प्रकाश भैय्या ने भी कहा,हां!जब से आंटी आईं हैं यही नाम ले रही हैं।"
सूर्यकांत मामा बोले,"हां!वो मेरा चचेरा‌भाई है।उसका उठना-बैठना सिखों में है।और वह रहता भी गुरूद्वारे के पास ही है।"तो फिर उन्हे बुलाकर लाइए मम्मी उदास स्वर में बोलीं"।हां!पर आज नहीं होगा मुझे मालिक को लेकर जाना है।कल सुबह लेकर आऊंगा"कहकर वे चले गये।वे एक र ईस के यहां ड्राइवर थे।उस दिन दिन सारा उदास सा बीता।
दूसरे दिन वे एक लम्बे-चौडे गोरे रंग वाले जिनका हुलिया बिल्कुल रवींद्रनाथ जैसा था उन्हें लेकर आए।उनके आते ही मम्मी ने चिल्लाने वाले अंदाज में पूछा "क्या आप विठ्ठल सिंघ को जानते हैं?"हां!उन्होंने जवाब दिया।'वो मेरे अच्छे दोस्त हैं।है नहीं थे‌ मम्मी ने टोका।ओह!कहकर वे रूके।"तो क्या आपको कभी मेरी‌याद नहीं आई?"
"आईं पर तुम सुरक्षित स्थान पर हो यह तसल्ली दी।तुम्हें मैंने ही विठ्ठल सिंघ को दिया था।काकी के गुजर जाने के बाद तीन दिन तक तुम्हारी देख करने के चाचा तुम्हें मेरा हुआ कहकर,एक टोकरी में डालकर,हाथ में हब्बल और फावड़ा ले घोड़े पर लेकर आए थे।क्योंकि गांव कुछ लोग तुम्हें अपनाना भी नहीं चाहते थे।"।
विट्ठल सिंघ को आप कैसे जानते थे?वो मेरे अच्छे दोस्त जब वे औरंगाबाद में ड्यूटी करते थे तब हमारी दोस्ती हुई थी।मेरे चाचा दोस्ती उनके बड़े भाई से थी।चमन के हनुमान मंदिर के सामने उनका टांगें बनाने का कारखाना था।उन्होंने उनकी पत्नी को मंदिर में बच्चे नहीं होने के कारण मंडल करते देखा था।इसी लिए उन्होंने तुम्हे मुझे दिया और विट्ठल सिंघ को देने को कहा।मैंने वैसा ही किया"।तो आप मुझे अपनी बहन मानते हैं?मानना क्या है।तुम हो ही हमारी बहन,चंद्रकांत मामाजी ने कहा।मैं यहां स्कूल में मास्टर था,विट्ठल सिंघ रेडियो स्टेशन में थे।मैं हर रोज गुरूद्वारे जाता था,वहीं हमारी दोस्ती हो गयी।
मेरे दो बेटे लम्बी बीमारी से गुजर गये,तब से मैं हर रोज गुरूद्वारे जाकर सुखमनी साहिब का पाठ करता हूं और कीर्तन सुनता हूं।इसके बाद सबने चाय पी फिर सब लोग सूर्यकांत मामा के घर गये।वहां उनकी पत्नी थीं।वे भी सीधी-सादी ग्रृहिणी थीं।छोटा सा घर था।उन्होंने हम चारों के लिए भोजन बनाया।उस दिन भाई का जन्म-दिन था,उन्होंने उसकी आरती उतारी,उसे ग्यारह रूपये दिये और मम्मी के गोद में ब्लाउज पीस रख कर गोद भरी।
(शेष आगे)