...

22 views

घिनोनी मानसिकता
द्वापर युग में द्रोपदी हिंसक मानसिकता से नही बची । सार्वजनिक अपमान और निर्वस्त्र मानसिकता की बलि चढ़ी ।

तो क्या कलियुग की द्रोपदी इस प्रतारणा से बच सकती है ?

दुःख होता है जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को इस प्रकार प्रताड़ित करता हैं ।
अगर मनुष्य का व्यवहार ऐसा है तो क्यों न प्रकृति कहर
बरसाएंगी ?

इतिहास साक्षी रहा है कि असुरी मानसिकता का ह्रास हुआ है और होता ही रहेगा ।
यही दंड है मनुष्य जाति का !?
और प्रकृति न्याय करेगी !
निश्चित ही !

🙏
मानवा तो चंचल भया,
करता रहे अधीर ,,!!
इसकी तू सुनना सदा,
होकर के गम्भीर ,,!!


पंख होते तो...?
अगर...
होते तो.. ??
वह बहुत कुछ कर सकती थी.. जो जिंदगी में अपने मन का कुछ ना कर पाने की वजह से डिप्रेशन में चली गई या जो किसी अत्याचार का प्रतिकार नहीं कर पाई या जो किसी गलत आक्षेप का जवाब नहीं दे पाई या जो खुद को इतना सशक्त नहीं मान पाई की अपने अपमान का सही जवाब दे पाए या जिसकी मजबूरी बन गया जहां है जैसी है, वैसे ही रहना.. या जिसके पास आत्महत्या ही एक रास्ता बचा था, जो खुद को उस पिंजरे से बाहर नहीं निकल पाती जिसके बाहर पूरा खुला आसमान है.. पर..पंख नहीं हैं। तो अपनी बेटियों को पंख दीजिए। उन्हें उड़ना सिखाइए। पिंजरे में अच्छे से चुपचाप खुशी-खुशी कैद रहने की ट्रेनिंग मत दीजिए। आपको लगेगा मैं किस जमाने की बात कर रहा हूं लेकिन मैं इसी जमाने की बात कर रहा हूं
और अनुपात की बात कर रहा हूं। थोड़ी बहुत जो आपको दिखती हैं कुछ करते हुए या कहें आसमान में उड़ते हुए,वह बहुत ही कम हैं। जिनके पंख काट दिए गए हैं, जिन्हें कैद करके रखा गया है, जिनकी सुनी नहीं जाती, जिनकी बातों को कोई महत्व नहीं दिया जाता, जो आज भी किसी से खुल कर अपनी कोई परेशानी नहीं कह पातीं उनकी संख्या कहीं ज्यादा है। उन्हें पंख दीजिए.. आत्मविश्वास के.. कि अपना संतुलन कायम रखते हुए उड़ान भर सकें। इतना ऊंचा भी ना उडे़ं कि अपने घोंसले का रास्ता भूल जाएं। इतना तेज भी नहीं उड़े कि सामने खड़े पहाड़ को देख ना पाएं और टकराकर गिर जाएं। अपने रास्ते और मंजिल खुद तय कर सकें और जीवन के अंत में पश्चाताप और क्षोभ से न भरी हों, इस तरह उड़ना सिखाइए।

सहदय धन्यवाद 💞🙏🏻