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आस (लघुकथा)
कंपकपाती ठंड में नंगे पांव चलते चलते सुकूँ से सांस भी नही ली जा रही, हे भगवन! कब तक ये गरीबी का पाप झेलना पड़ेगा, मेरे बेटे को नौकरी मिल जाए तो घर की दशा कुछ ठीक हो। यही सोचते विचारते सुरेश सुबह सुबह रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान खोल रहा था।
एक युवक आया अरे भइया एक चाय देना,
ठीक है भइया रुको दो मिनट।।
ये लो भाई तुम्हारी चाय!
धन्यवाद भाई, कितने रुपये हुए?
दस रुपये दे दो भाई, युवक पच्चास का नोट देते हुए निकल पड़ा,
अरे भइया अपना पैसा तो लेते जाओ,
रख लो भाई,
अरे सुनो तो!
ये लो भाई अपना पैसा हम गरीब भले है पर बेईमान नही हैं।।
तुम्हारे जैसा मेरा बेटा भी है पढ़ने गया है बाहर, आज आ रहा है उसकी नौकरी लग जाए तो ये गरीबी से उबर जाएंगे भाई।।
धन्यवाद भइया मेरा इरादा आपको तकलीफ देने का नही था।।
शाम को बेटे के आते ही उसे गले लगाते हुए खुशी के आंसुओं के साथ सर पर हाथ रखते, सुरेश गरीबी को खत्म करने की एक नई उम्मीद की किरणों को ढूंढता है।।



© नेहकिताब