...

42 views

मैं, मेरी दादी और बुढ़ापा...
मेरे सिर से एक हाथ छूट चुका था। और अब महज उनकी यादें थी और उनकी बातें थी। जीवन के अंतिम दिनों में मेरी दादी को काफी संघर्ष करना पड़ा था। सारा शरीर मृत हो चुका था महज बाकि थी तो सांस।
न कुछ खाती थी और न ही कुछ पीती थी जैसे मौन ने उन्हें गैर लिया हो। 7 जुलाई सुबह के 3.40 पर जब मेरी दादी ने जीवन की अंतिम आह भरी और वो आसमान का तारा हो गई। कहा जाता है की प्रातः जाने वालों के लिए भगवान के दरवाजे खुले मिलते हैं और हो भी क्यों न , मेरी दादी ने भी अपनी ममता के दरवाजे हमेशा खुले ही रखे थे। चाहे गैर हो या परिचित। खाना हो या पानी।
एक उम्र तक दादी ने वो सब कुछ किया जो उनसे हो सकता था। एक उम्र के बाद तो शरीर भी जवाब देने लगता है। दादाजी के गुजर जाने के बाद अब वो भी अकेली हो गई थी। तो हम उन्हें अपने साथ ले आए। इन शहर की गलियों में। हालांकि यहां का माहौल भी कुछ कुछ गांव के जैसा ही था पर जो बात गांव की जमीं में होती है वो बात इन शहर की गलियों में कहां।
अब हमारा फर्ज था की हम उनकी देखभाल करे। सब अपने कामों में व्यस्त रहते थे पर चुकी मैं सबसे छोटी थी तो मेरा अधिकांश वक्त दादी के साथ ही बीतता था।
अपनी दादी के साथ रहते हुए मैंने बुढ़ापे को करीब से जाना था। जाना की बुढ़ापा कितना असहाय होता है। कितना अकेला और कितना उदासी भरा होता है। कितना शांत होता है। कहते हैं की बुढ़ापे में लाठी ही सहारा होती है वो भी तब, है बूढ़े में उसे पकड़ने की हिम्मत हो।
मेरी दादी की हालत भी कुछ ऐसी ही हो चुकी थी। लकड़ी से ज्यादा वो मेरे सहारे से चलती थी। जिस तरह से एक शिशु को अपनी क्रियाओं का पता नहीं होता ठीक वैसी ही स्थिति मेरी दादी की थी। सही भी है बुढ़ा बच्चे के समान ही तो होता है। फर्क महज उम्र का है। एक के स्वभाव पर प्रेम तो एक के स्वभाव पर द्वेष क्यों? पता नहीं।
अपनी दादी के साथ रहते हुए मुझे उन सब की आदत हो चुकी थी। कभी -कभी क्रोध भी आता पर क्या कर सकती थी। ये तो किसी के साथ भी हो सकता है। कल मेरे साथ भी। यही सोचकर मैंने बाहरी दुनिया में कदम नहीं रखा। क्योंकि मैंने बुढ़ापे को असहाय पाया था। जिसे जरूरत थी सहारे की। फिर कैसे में अपने ख्वाब सजाने चली जाती। उन्हें अकेला छोड़कर।
इसलिए उनके साथ रहते हुए ही मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी।
आज की पीढ़ी शायद उस उम्र तक न पहुंच पाए क्योंकि आज की पीढ़ी उदासी और अवसाद से ग्रस्त है और ज़रा सी असफलता पर अपने जीवन से हार जाती है। और हमारा खान -पान, हवा सब कुछ मिलावटी सा हो गया है । हमारे विचारों में भी मिलावट आ चुकी है। ऐसे में संभव नहीं की हम उस उम्र तक पहुंच पाए। अगर पहुंच भी गए तो कल बुढ़ापा तो हमारा भी आना है। फिर क्यों? हमें बूढ़े से घृणा होनी चाहिए।
कभी -कभी तो मुझे लगता है हम क्यों ? दौड़ रहे है। किसके लिए दौड़ रहे है। इतनी दौड़ का परिणाम भी अगर उदासी और अकेलापन हो तो क्या मतलब है इसी दौड़ का।
कहने का अर्थ है की इस भागती जिन्दगी से कुछ वक्त उनके लिए भी निकले तो मुझे लगता है, हमें किसी भी उम्र से द्वेष नहीं होगा और नहीं किसी इंसान से।
हां एक दिन तो सबको जाना है, उनके जाने का गम कर भी ले तो भी, वे वापस कहां आने वाले है। यदि जीवित रहते हुए कुछ वक्त उनके साथ बिताया जाए तो कहां गलत है। मुझे सुकून इस बात से है की मैं अपनी दादी के बुढ़ापे का सहारा बन पाई जब भी उन्हें जरूरत थी मेरी।
आज की इस भागती ज़िन्दगी में किसी को वक्त ही नहीं है उस ढलती उम्र के लिए। कितना अजीब है ना हम सब एक उम्र तक दौड़ लगाएंगे, फिर एक उम्र में जाकर खुद को असहाय, तनहा सा पाएंगे। तो क्या सिर्फ इसीलिए हम दौड़ रहे हैं। अकेले रहने के लिए ,अपनी उदासी को न कहने के लिए।
मैंने बुढ़ापे को बेहद करीब से जाना है और अब किसी भी उम्र या इंसान से मुझे द्वेष नहीं होता। हमारी जिंदगी भी बड़ी अजीब है, एक ओर हम ढलती उम्र को समझना नहीं चाहते और दूसरी ओर उस उम्र तक जाने की ख्वाहिश रखते हैं।
इस कहानी का महज़ यही उद्देश है की यदि हम खुद पर लेकर किसी परिस्थिति को समझे तो शायद हम बेहतर सोच सके। यदि आज हम उस ढलती उम्र को वक्त नहीं देते हैं तो यकीनन कल हमारे लिए किसी के पास वक्त हो जरूरी नहीं होगा।

© मनीषा मीना