...

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चाहत
बस किसी को चाहना ऐसा ही होता है,
हम बस चाहने लगते हैं, नही सोचते कब तक कि मोहलत है, कौन है? क्या करता है ?
बदले में हमें कुछ मिलेगा या नहीं?
कैसा दिखता हैं ? लोग क्या कहेंगे?
किस मज़हब का हैं? क्या जात होगी उसकी?
उसके कपड़ें ? चहेरे पर पड़े वो निशान ....
कुछ दिखाई नहिं देता और हम बस चाहने लगते हैं, अथः चाहने लगते है।
कितना जिसकी कोई सीमा नहीं वो चाहत खत्म नही होती जैसे अपने पीछे चाहत का कोई समंदर लेकर घूमती हो, जो कितना ही ख़र्च कर लो कभी खत्म नहीं होता।

मनीषा राजलवाल
© maniemo