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मुर्तिकार की मानवता
मुर्तिकार की मानवता

सुबह का समय था एक औरत मंदिर के सिढी़यो को साफ कर रही थी,वही एक छोटी बच्ची मंदिर की सिढी़ पर खूब मगन होकर खेल रही थी और बार- अपनी माँ से एक सवाल पूछे रही थी की माँ पापा कहां है कई बार सावाल करने पर गुसा होकर भगवान शंकर की तरफ इशाराकरते हुए कहा वह है तेरे पिता लड़की बहुत खुश हुई और भगवान शंकर के मूर्ति के पास जा कर खेलने लगी वहीं एक मूर्तिकार खड़ा हो सबी घटनाओ को देख रहा था।
वह लड़की अब हर रोज वहा जाकर खेलती और अपने माँ से अब कोई सवाल नहीं करती थी, और उस मुर्ति को देख वह पिताजी कह कर पुकारती कुछ सालो वाद वो लड़की बड़ी हो गई विवाह योग्या हो गई फ़िर भी हर रोज वहा जाति और खूबसूरत मन से खेलती थी जो भी बात होती थी वह उस मूर्ति को देख कर कहती और मुर्ति को देख हमेसा पिताजी पिताजी कहकर पुकारा करती, वह हर रोज स्मृति को नहलाती और
सिलापठ के नाम को अपनी चुन्नी के किनारे से पोछती

कुछ सालो बाद वह बड़ी हो गई विवाह योग्य हो गई माता रानी की कृपा से उसकी विवाह भी तय हो गई

विवाह का तारीख भी रख दी गई वह दिन भी आ गया जिस दिन उसकी शादी थी कन्यादान करने का समय पंडित जी द्वरा माँ और बाप को कन्यादान करने के लिए बुलाया गया

माँ आ गई , माँ को अकेले आता देख पंडित जी ने कहा लड़की के पिता को बुलाए ये सुनते ही लड़की के माँ की आंखों में आंसू आ गए।

माँ को ऐसे रोता देख लड़की भी रो पड़ी कहीं से एक गम्भिर स्वर मे आवाज आई मैं यहा हु बेटा तू रोती क्यों है
देख मैं यहां हूं ये सुन्ते ही लड़की ने रोना बंद कर दिया फीर लड़की की कन्यादान हुई उसके बाद उसकी शादी हो गई और लड़की खुशी-खुशी अपने ससुराल चली गई।

वह इंसान जिसने उस लड़की की कन्यादान किया और उसकी शादी करवाई वह इंसान कोई और नहीं वह मूर्तिकार था, जिसने मंदिर के बहार रखे भगवान शंकर की मूर्ति बनाई थी,और जिसके नाम को लड़की अपनी चुन्नी के कीनारे से हर रोज पोछती थी।