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"डाक बाबू" (The post man)
ये कहानी उस समय की है जब ख़तो का जमाना था। दूर रहने वाले ख़तो के जरिए एक दूसरे का सुख दु:ख बांट लिया करते थे, वो महज़ कागज़ का कोई टुकड़ा नहीं था बल्कि उसमें जज़्बातो का और अपने पन की महक बसती थी कभी ये किसी का अकेलापन दूर करता था तो कभी प्रेमियों की मोहब्बत इन ख़तो के हर एक लफ्ज़ो में महसूस हुआ करती थी तो कभी किसी मां को सुदूरवर्ती स्थान में बसे अपने बेटे का महज़ एक ख़त पाकर सुकून दिया करती थी।
उन्हीं दिनों की बात है जानकीनाथ गांव से दिल्ली शहर आकर यहां नौकरी के सिलसिले में आकर बस गए। गांव में जो उनकी कमाई होती थी वो बेहद सीमित दर्जे की थी जिसमें पत्नी दो बेटे और एक बेटी माता-पिता का गुजारा होना मुश्किल था चुनांचे वो दिल्ली आकर नौकरी की तलाश में निकल पड़े। काफी जद्दोजहद के बाद आखिर उन्हें एक कंपनी में नौकरी मिल गई और वेतन भी ठीक ठीक ही था जो कम से कम गांव की कमाई से बेहतर थी।
जानकीनाथ हर महीने एक ख़त और मनीआर्डर अपनी पत्नी के नाम भेज देते थे, उन्होंने पत्नी (कौशल्या) को ये आश्वासन दिया कि कुछ ही महीनों बाद वेतन के थोड़ा और बढ़ने पर वो उन्हें और परिवार को शहर बुला लेंगे।
समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा और महीने से एक साल बीत गया। कौशल्या हर महीने बहुत ही बेचैनी से डाक बाबू का इंतजार करती थी कि वो आए और उन्हें पति...