"दुर्गाअष्टमी"
"कहाँ जा रहे हो ,सज धज के"
पूछने वाले ,वाले नहीं वाली ने भौंहें टेढ़ी की
"कहीं भी जाउँ ,तुम्हें उससे मतलब"
साईकिल की चेन चढ़ाते हुए ,झुके झुके ही मैंनें जवाब दिया
जैसे आग में पेट्रोल पड गई
"सब जानते है जाओ,जाओ,जिसने बुलाया है उसका नाम भी जानते है ,कहों तो बताए" इसबार भौहों के साथ साथ हाथों को भी चमकाया गया,खनखनाती चूड़ियाँ मानों कह रही थी,भाग जाओ नहीं तो पिटोगे।
हम तो सरपट भागें, हम तो सारी राह एक से बढ़ कर एक गाने गाते चले जा रहे थे...
ना जाए मसूरी ना जाए देहरादून....
गेहूं के हरेभरे खेत आने लगे,फिर फूलों भरे काश के जंगल
सन्न सन्न करती राहें
फिर अमराइयों का ताता...आम के सघन वृक्षों का बाग
आम के दिनों में इसके बीच से गुजरना मुश्किल, मंजरियों की महक से आदमी बेहोश होकर गिर न जाए...
लो अच्छे भले रास्ते में किसानों के पटवन से कीचड़
फंस गई साईकिल... बेटीचो...गाली आ रही है मुं में
सालों को आज ही खेतों में पानी देना था,दो चार दिन बाद दे देते तो क्या गेहूं की बालियां मुरझा जाती...नालायक
खैर...विघ्न तो आने ही थे,पहली बार जो उसके घर जा रहे थे बार बार झुकने से नया पजामा भी चरचरा गया,
चक्के में कीचड़ फंस गई, किसी तरह घसीट कर खेत से बाहर आए...तोहरी भैसियाँ को डंडा मारु...
फिर सामने नदी थी ,नदी क्या थी लगता था एक्वेरियम ,झिलमिलाते सफेद दूधिया जल में हरी हरी शैवाल
लो अब पाजामा उपर घूटने तक चढ़ाना होगा,चलो अच्छा है चक्का अच्छे से धुल जाएगा तो जाम न होगा,थोड़ा हाथ मुंह भी धो लेता हूँ,अभी और आगे जाना है आगे पानी मिले न मिले,
अंजुली भर भर के पानी पीया, केहुनियाँ से चूते पानी से कुर्ते की बाँह भी भींग गई,
धूल भरे रास्तें शुरु हो गए, रह रह के बवंडर उठ रहे थे,
बस और थोड़ी दूर है,लो बाजार आ गया
दो चार ही दुकान थी ,छोटा सा देहाती बाजार, हाँ सप्ताह में एक बार खुब मेला सजता है,जमीन पर ही बिछा कर ,सबकुछ बिकता है ,बिल्कुल सस्ता और एकदम देशी
"ए भैया, इधर मनिहारी की दुकान है"
मैंनें चाय बना रहें एक आदमी से पूछा
उसने उपर से निचे तक मुझे देखा
"ससुराल जा रहे हो क्या बाबू,लगता है पत्नी के लिए चूड़ी बिंदी लेनी है"
दाँत दिखाते हुए चाय वाला बोला
आसपास खड़े लोग ,मुं ढंके हँसने लगें
"ऐ भैया पता है तो बता दो,क्या लेंगें क्या नहीं, उससे तुम्हें क्या"
"वो जो सेमल का पेड़ देख रहे हो आगे ,वहीं पास में है एक दुकान"
मैनें साईकिल को पैडल मारी,
एक लड़की बैठी थी दुकान पर
"फोटो फ्रेम है जी तुम्हारे पास"
मैंनें साईकिल पर बैठें बैंठे ही पूछा
"ए भैया जी,साईकिल से उतरोगे भी या सौदा..."
दुकान में आ गये ,दो चार फ्रेम ही होंगे,हमनें जेब में रखी तस्वीर निकाली
"इस फ्रेम में लगा दो"
लड़की ने एक सरसरी नजर फोटो पर डाली और फ्रेम में लगाकर मेरी ओर बढ़ाया
मैने झोले में रखा,अभी दस किलोमीटर और है
फ्रेम देखकर न जाने वो कितना खुश हो छुपाकर हीं देना होगा,उसके घरवालों ने देखा तो गजब हो जाएगा,लड़की की इज्ज्त और पानी का बुलबुला
ये क्या भरी दोपहरी में अंधेरा,अरे दादा,ये तो बड़ी बड़ी बूंदें है
और फिर मूसलाधार उफ्फ
छुपने का भी मौका न था और ना ही आसपास कोइ ठिकाना
हम खम्भे की तरह खड़े थे,सबकुछ भींग रहा था,भीतर बाहर सबकुछ,अंतरमन तक भींग गया,नायक फिल्म के अनिल कपूर लग रहे थे
कौन ऐसा होगा जिसने अपने मोबाईल में कभी ,थम के बरस जरा थम के बरस,मुझ़ें महबूब के पास...को रिंगटोन न बनाया हो,
साला एक किलोमीटर और राह थी
उसके गाँव के बिल्कुल पास जाकर ये जो आक्समिक आक्रमण हुआ था अप्रत्याशित था बिल्कुल
लेकिन मुझे तो बस एक ही चेहरा दिखाई पड़ता था,ये आंधी बारिश तुफान मेरा रास्ता न रोक सकते थे
नई ,नई रिश्तेदारी ,लोगबाग देखेंगे तो क्या सोचेंगे, गजब का भुच्चड आदमी है,बरसात में कहीं रुक न सकता था
गर्मी में सर्दी का अहसास हो रहा था,भय ग्लानी चिंता सबका मिश्रित असर हो रहा था
डरते डरते कुण्डी बजाई
तुरंत दरवाजा खुला,जैसे कोइ दरवाजे के पास ही खड़ा था
मैं अचकचा गया ,वही थी दौड़कर भीतर भागी
"भाभी जी आपके भाई आए है"
मैं भीतर आ गया,कहाँ गये सबके सब,कोइ नहीं था घर पर ,मेरी दिदी की ससुराल
"लिजिए" कोइ हाथों में तौलिया लिए हँस रहा था
बिल्कुल फिल्मी सीन चल रहा था
"घर के बाकी लोग कहाँ गये" मैनें बालों से टपकते पानी को पोछते हुए पूछा
"कोइ नहीं है घर पर सभी लखनऊ गये है,भैया ने नया घर लिया है ,लिजिए कंघी ,मैं दूसरे कपड़े लाती हूँ,हाल तो ऐसा बना रखा है जैसें" किसी तरह हँसी रोकते हुए उसने कहा
व्यवस्थित होकर मैं ज्योहीं मुड़ा दिदी सामने थी,मैंनें झुककर प्रणाम किया
"खुश रहो,आज सुबह से ही कौवें बोल रहे थे ,क्यों छोटी,कहा था ना मैंने तुमसे,आज कोइ न कोइ मेरे घर से आएगा,ए बबुआ चलों आओ ,कुछ खा पी लो फिर आराम करना,थक गये होंगे"
छोटी नाम था उसका ,मेरी प्यारे जीजू के बुआ की बेटी
दिदी के घर पर ही बचपन से पली बढ़ी थी,दिदी भी उसे ननद की तरह प्यार करती थी,घर में दुसरी कोइ लड़की न थी इसलिए पूरे परिवार का प्यार उसी को मिलता था
थका हुआ तो मैं था हीं खाना खाते ही सो गया,
सोकर उठा तो बारिश भी रुक गई थी और शाम भी हो गई थी
"दिदी मैं जा रहा हूँ"मैंने चिल्लाकर कहा
"आज नहीं जाओगें, आज दुर्गाष्टमी है कल चले जाना,आज जरा छोटी को दुर्गापूजा दिखाना है "रसोई में से ही दिदी की आवाज आइ।
अंधे को और क्या चाहिए दो आँखें
शाम के बाद हम तीनों दुर्गापूजा घूमने निकले,लौटते हुए रात के बारह बज गये,
दिदी हमलोगों से पहले ही घर पहुंच गई
राह में केवल हम दो लोग ही थे छोटी और मैं
राह में एक छोटी पुलिया पडती है,छोटी उसी पर जाकर बैठ गई
मैं भी उसी के पास जाकर बैठ गया,चुपचाप
कुछ देर बाद मैंने हीं एकांत भंग किया
"यहाँ अंधेरे में क्यों बैठ गई"
"पैर दुख रहे थे,कितना पैदल चला दिया"
"लाओ मैं दबा दू"
"रहने दिजिए पता लगा साहब पैर दबाने में कहीं तोड न दे,हमें नहीं दबवाना पैर"
"ओके ,कबतक यही पर बैठी रहोगी"
" तबतक जबतक आसमान में सूरज चाँद रहेंगे "
"नहीं तोडूंगा पैर,लाओ दबा दूँ"
"चलो,हटो बडे आए खैरात बाँटने,"
उठ कर वो चल दी,मैं भी पिछे हो लिया
हम बातें करते चले जा रहे थे,
"कैसा लगा"
"सुंदर था,कहाँ से लिया"
"बनारस से पापा लाए थे" मैंने झूठ बोला
"फोटोफ्रेम लाने की क्या जरुरत थी,मैंनें तो एल्बम मांगी थी तुम्हारे घर की ,सबकी फोटो देखने के लिए" वो ठिठक गयी
मै भी रुक गया यह एक गली थी,सुनसान
"सबकी फोटो देखनी थी,या मेरी फोटो"
उसने मेरी आँखों मे झांका
उसके बाद से उससे इस तरह अकेले मिलना कभी न हुआ
हमारी अपनी दिदी हम दोनों की दुश्मन साबित हुई
धीरे धीरे हमदोनों के मिलने जुलने की खबरे सबको पता चल गई
तुरत फुरत में उसकी शादी तय हो गई, उसपर कड़े पहरे लगा दिए गये,
दिदी बिल्कुल जीद्द पर अड गई
"हरगिज नहीं, रिश्तेदारी में शादी नहीं होगी"
हम दोनों मन मसोस कर रह गये,
अकेले में मिलते तो एक दूसरे को डबडबाई आँखों से,कुछ भी साफ न दिखता,सब धूंधला नजर आता,मेरा दिया हुआ फोटोफ्रेम भी उसने लौटा दिया,
दिदी ने चुन चुन कर अपने घर के एल्बम से भी मेरी सारी तस्वीरे हटा दी,उसकी शादी हो गई
ये क्या ,शादी होते ही बिल्री शेर हो गई,
पुरा परिवार लखनऊ शिफ्ट हो गया था ,एकदिन छोटी का फोन आया,
"आ जाओ ,तुमकों लखनऊ का दुर्गापूजा घुमाते है"
आज फिर दुर्गाष्टमी थी,आज फिर हम दोनों साथ थे,अंतर ये था कि उसकी मांग में सिंदूर था और मेरे हाथों मे उसका हाथ और आँखों में जलजला
लेकिन शायद अंतिम बार
उसके अंतिम शब्द आज भी मेरे कानों में गुंजते है
"तुम भगवान हो मेरे"
समाप्त:-
पुरा पढ़ने के लिए धन्यवाद,
फिर मिलते है किसी अन्य कहानी में
नमस्कार🙏🙏🙏
© सौमित्र
पूछने वाले ,वाले नहीं वाली ने भौंहें टेढ़ी की
"कहीं भी जाउँ ,तुम्हें उससे मतलब"
साईकिल की चेन चढ़ाते हुए ,झुके झुके ही मैंनें जवाब दिया
जैसे आग में पेट्रोल पड गई
"सब जानते है जाओ,जाओ,जिसने बुलाया है उसका नाम भी जानते है ,कहों तो बताए" इसबार भौहों के साथ साथ हाथों को भी चमकाया गया,खनखनाती चूड़ियाँ मानों कह रही थी,भाग जाओ नहीं तो पिटोगे।
हम तो सरपट भागें, हम तो सारी राह एक से बढ़ कर एक गाने गाते चले जा रहे थे...
ना जाए मसूरी ना जाए देहरादून....
गेहूं के हरेभरे खेत आने लगे,फिर फूलों भरे काश के जंगल
सन्न सन्न करती राहें
फिर अमराइयों का ताता...आम के सघन वृक्षों का बाग
आम के दिनों में इसके बीच से गुजरना मुश्किल, मंजरियों की महक से आदमी बेहोश होकर गिर न जाए...
लो अच्छे भले रास्ते में किसानों के पटवन से कीचड़
फंस गई साईकिल... बेटीचो...गाली आ रही है मुं में
सालों को आज ही खेतों में पानी देना था,दो चार दिन बाद दे देते तो क्या गेहूं की बालियां मुरझा जाती...नालायक
खैर...विघ्न तो आने ही थे,पहली बार जो उसके घर जा रहे थे बार बार झुकने से नया पजामा भी चरचरा गया,
चक्के में कीचड़ फंस गई, किसी तरह घसीट कर खेत से बाहर आए...तोहरी भैसियाँ को डंडा मारु...
फिर सामने नदी थी ,नदी क्या थी लगता था एक्वेरियम ,झिलमिलाते सफेद दूधिया जल में हरी हरी शैवाल
लो अब पाजामा उपर घूटने तक चढ़ाना होगा,चलो अच्छा है चक्का अच्छे से धुल जाएगा तो जाम न होगा,थोड़ा हाथ मुंह भी धो लेता हूँ,अभी और आगे जाना है आगे पानी मिले न मिले,
अंजुली भर भर के पानी पीया, केहुनियाँ से चूते पानी से कुर्ते की बाँह भी भींग गई,
धूल भरे रास्तें शुरु हो गए, रह रह के बवंडर उठ रहे थे,
बस और थोड़ी दूर है,लो बाजार आ गया
दो चार ही दुकान थी ,छोटा सा देहाती बाजार, हाँ सप्ताह में एक बार खुब मेला सजता है,जमीन पर ही बिछा कर ,सबकुछ बिकता है ,बिल्कुल सस्ता और एकदम देशी
"ए भैया, इधर मनिहारी की दुकान है"
मैंनें चाय बना रहें एक आदमी से पूछा
उसने उपर से निचे तक मुझे देखा
"ससुराल जा रहे हो क्या बाबू,लगता है पत्नी के लिए चूड़ी बिंदी लेनी है"
दाँत दिखाते हुए चाय वाला बोला
आसपास खड़े लोग ,मुं ढंके हँसने लगें
"ऐ भैया पता है तो बता दो,क्या लेंगें क्या नहीं, उससे तुम्हें क्या"
"वो जो सेमल का पेड़ देख रहे हो आगे ,वहीं पास में है एक दुकान"
मैनें साईकिल को पैडल मारी,
एक लड़की बैठी थी दुकान पर
"फोटो फ्रेम है जी तुम्हारे पास"
मैंनें साईकिल पर बैठें बैंठे ही पूछा
"ए भैया जी,साईकिल से उतरोगे भी या सौदा..."
दुकान में आ गये ,दो चार फ्रेम ही होंगे,हमनें जेब में रखी तस्वीर निकाली
"इस फ्रेम में लगा दो"
लड़की ने एक सरसरी नजर फोटो पर डाली और फ्रेम में लगाकर मेरी ओर बढ़ाया
मैने झोले में रखा,अभी दस किलोमीटर और है
फ्रेम देखकर न जाने वो कितना खुश हो छुपाकर हीं देना होगा,उसके घरवालों ने देखा तो गजब हो जाएगा,लड़की की इज्ज्त और पानी का बुलबुला
ये क्या भरी दोपहरी में अंधेरा,अरे दादा,ये तो बड़ी बड़ी बूंदें है
और फिर मूसलाधार उफ्फ
छुपने का भी मौका न था और ना ही आसपास कोइ ठिकाना
हम खम्भे की तरह खड़े थे,सबकुछ भींग रहा था,भीतर बाहर सबकुछ,अंतरमन तक भींग गया,नायक फिल्म के अनिल कपूर लग रहे थे
कौन ऐसा होगा जिसने अपने मोबाईल में कभी ,थम के बरस जरा थम के बरस,मुझ़ें महबूब के पास...को रिंगटोन न बनाया हो,
साला एक किलोमीटर और राह थी
उसके गाँव के बिल्कुल पास जाकर ये जो आक्समिक आक्रमण हुआ था अप्रत्याशित था बिल्कुल
लेकिन मुझे तो बस एक ही चेहरा दिखाई पड़ता था,ये आंधी बारिश तुफान मेरा रास्ता न रोक सकते थे
नई ,नई रिश्तेदारी ,लोगबाग देखेंगे तो क्या सोचेंगे, गजब का भुच्चड आदमी है,बरसात में कहीं रुक न सकता था
गर्मी में सर्दी का अहसास हो रहा था,भय ग्लानी चिंता सबका मिश्रित असर हो रहा था
डरते डरते कुण्डी बजाई
तुरंत दरवाजा खुला,जैसे कोइ दरवाजे के पास ही खड़ा था
मैं अचकचा गया ,वही थी दौड़कर भीतर भागी
"भाभी जी आपके भाई आए है"
मैं भीतर आ गया,कहाँ गये सबके सब,कोइ नहीं था घर पर ,मेरी दिदी की ससुराल
"लिजिए" कोइ हाथों में तौलिया लिए हँस रहा था
बिल्कुल फिल्मी सीन चल रहा था
"घर के बाकी लोग कहाँ गये" मैनें बालों से टपकते पानी को पोछते हुए पूछा
"कोइ नहीं है घर पर सभी लखनऊ गये है,भैया ने नया घर लिया है ,लिजिए कंघी ,मैं दूसरे कपड़े लाती हूँ,हाल तो ऐसा बना रखा है जैसें" किसी तरह हँसी रोकते हुए उसने कहा
व्यवस्थित होकर मैं ज्योहीं मुड़ा दिदी सामने थी,मैंनें झुककर प्रणाम किया
"खुश रहो,आज सुबह से ही कौवें बोल रहे थे ,क्यों छोटी,कहा था ना मैंने तुमसे,आज कोइ न कोइ मेरे घर से आएगा,ए बबुआ चलों आओ ,कुछ खा पी लो फिर आराम करना,थक गये होंगे"
छोटी नाम था उसका ,मेरी प्यारे जीजू के बुआ की बेटी
दिदी के घर पर ही बचपन से पली बढ़ी थी,दिदी भी उसे ननद की तरह प्यार करती थी,घर में दुसरी कोइ लड़की न थी इसलिए पूरे परिवार का प्यार उसी को मिलता था
थका हुआ तो मैं था हीं खाना खाते ही सो गया,
सोकर उठा तो बारिश भी रुक गई थी और शाम भी हो गई थी
"दिदी मैं जा रहा हूँ"मैंने चिल्लाकर कहा
"आज नहीं जाओगें, आज दुर्गाष्टमी है कल चले जाना,आज जरा छोटी को दुर्गापूजा दिखाना है "रसोई में से ही दिदी की आवाज आइ।
अंधे को और क्या चाहिए दो आँखें
शाम के बाद हम तीनों दुर्गापूजा घूमने निकले,लौटते हुए रात के बारह बज गये,
दिदी हमलोगों से पहले ही घर पहुंच गई
राह में केवल हम दो लोग ही थे छोटी और मैं
राह में एक छोटी पुलिया पडती है,छोटी उसी पर जाकर बैठ गई
मैं भी उसी के पास जाकर बैठ गया,चुपचाप
कुछ देर बाद मैंने हीं एकांत भंग किया
"यहाँ अंधेरे में क्यों बैठ गई"
"पैर दुख रहे थे,कितना पैदल चला दिया"
"लाओ मैं दबा दू"
"रहने दिजिए पता लगा साहब पैर दबाने में कहीं तोड न दे,हमें नहीं दबवाना पैर"
"ओके ,कबतक यही पर बैठी रहोगी"
" तबतक जबतक आसमान में सूरज चाँद रहेंगे "
"नहीं तोडूंगा पैर,लाओ दबा दूँ"
"चलो,हटो बडे आए खैरात बाँटने,"
उठ कर वो चल दी,मैं भी पिछे हो लिया
हम बातें करते चले जा रहे थे,
"कैसा लगा"
"सुंदर था,कहाँ से लिया"
"बनारस से पापा लाए थे" मैंने झूठ बोला
"फोटोफ्रेम लाने की क्या जरुरत थी,मैंनें तो एल्बम मांगी थी तुम्हारे घर की ,सबकी फोटो देखने के लिए" वो ठिठक गयी
मै भी रुक गया यह एक गली थी,सुनसान
"सबकी फोटो देखनी थी,या मेरी फोटो"
उसने मेरी आँखों मे झांका
उसके बाद से उससे इस तरह अकेले मिलना कभी न हुआ
हमारी अपनी दिदी हम दोनों की दुश्मन साबित हुई
धीरे धीरे हमदोनों के मिलने जुलने की खबरे सबको पता चल गई
तुरत फुरत में उसकी शादी तय हो गई, उसपर कड़े पहरे लगा दिए गये,
दिदी बिल्कुल जीद्द पर अड गई
"हरगिज नहीं, रिश्तेदारी में शादी नहीं होगी"
हम दोनों मन मसोस कर रह गये,
अकेले में मिलते तो एक दूसरे को डबडबाई आँखों से,कुछ भी साफ न दिखता,सब धूंधला नजर आता,मेरा दिया हुआ फोटोफ्रेम भी उसने लौटा दिया,
दिदी ने चुन चुन कर अपने घर के एल्बम से भी मेरी सारी तस्वीरे हटा दी,उसकी शादी हो गई
ये क्या ,शादी होते ही बिल्री शेर हो गई,
पुरा परिवार लखनऊ शिफ्ट हो गया था ,एकदिन छोटी का फोन आया,
"आ जाओ ,तुमकों लखनऊ का दुर्गापूजा घुमाते है"
आज फिर दुर्गाष्टमी थी,आज फिर हम दोनों साथ थे,अंतर ये था कि उसकी मांग में सिंदूर था और मेरे हाथों मे उसका हाथ और आँखों में जलजला
लेकिन शायद अंतिम बार
उसके अंतिम शब्द आज भी मेरे कानों में गुंजते है
"तुम भगवान हो मेरे"
समाप्त:-
पुरा पढ़ने के लिए धन्यवाद,
फिर मिलते है किसी अन्य कहानी में
नमस्कार🙏🙏🙏
© सौमित्र