...

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प्रेममग्न
अपनी यौवन की वसंत में
कमरे के कोने में पड़े मैनिप्लांट के पत्ते भी
गुलाब से खिल उठते हैं,

मगर तुम्हें बांध लिया गया है
उदासी भरे इक कमरे में
और गुलाब कैद है अलमारी में पड़े
किताबों के दो पन्नों के बीच कराहते हुए,

उंगलियों के पोरों के स्पंदन
हृदय के अनगिनत ऊर्जा से भरपूर
कमरे को भर देते हैं ये गुलाब और मनी प्लांटस

लेकिन इतनी शोभा से अलग
कभी देखना गौर से
इसी कमरे में तैयार होती, मुस्कुराती...

मनी प्लांटस से थोड़ी ज्यादा हरी,
गुलाब की पत्तियों से ज्यादा रक्तिम काया लिए
अपने देह की तितलियों से रंगीन

कैसी लगती होगी
दुनिया की भीड़ की तरफ़ पीठ लगाए
आकाश.. समंदर... जंगल.. खंडहर.. नक्षत्र से अलग
औंधे मुंह प्रेम में मग्न स्त्री,

इतनी पवित्र..
जो खिलकर देवताओं को
चढ़ नहिं पाई..
उदासीन कमरे को अपनी सुगंध से
रोम रोम दिव्य कर देने वाली

प्रेममग्न स्त्री कभी साधारण नहीं होती
वो तो केवल दर्शनीय होती है...
देवलोक से पृथ्वी पर अवतरित ईश्वरदत्त
पारिजात सरीखी...
© Mishty_miss_tea