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मैं होली मनाती हूं तब !
#हिंदी #साहित्य #रंग#होली

किस रंग से खेलूं आज होली ?
किस के साथ खेलूं होली ?
बाहर के बदलते रंगों के सिर दोष मढ़ने से क्या ही होगा ?
जो भीतर के रंग खेले जा रहे हैं होली , उनका क्या करूं ?
उस होली को हर दिन जिए चले जाना
हर दिन होली मानने जैसा है
हर रंग अपना रंग बदल देता है समय समय पर
भीतर भरती निराशा , पीड़ा उन रंगों पर अपनी कालिख पोत देते हैं
फ़िर बड़ी जद्दोजहद के बाद
उस कालिख से भरे सारे रंग
आंखों की पिचकारी से बाहर को निकाल देने होते हैं
काजल से मिला कर वो पानी
मेरी रूह को काले पानी की सज़ा से रिहा कर देता है
कुछ पलों के लिए

कुछ पलों के लिए मेरी रूह आज़ाद हो जाती है सभी रंगों से

तब भीतर के सारे रंग सफ़ेद हो जाया करते हैं

मैं होली मनाती हूं तब
सफेद कोरे कैनवास को फ़िर से कुछ नए से पीले , लाल , गुलाबी , हरे , नीले
रंगों से भरने का समय आ जाता है

मैं उस कैनवास पर होली खेलती हूं तब

मैं होली मनाती हूं तब !

© preet