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नशे की रात ढल गयी-21
(21) साहित्य का संक्रमण कब ,कहाँ और कैसे लगा, कुछ ठीक-ठीक याद नहीं ..लेकिन शक की सुई हरबार घूमकर सिर्फ एक जगह आकर रूक जाती है और वह है -दीना का ढाबा ,जहाँ शाम होते ही हम खींचे चले आते थे । यह सीवान का काॅफी हाउस था। इस ढाबे की स्थाई सदस्यता लेने के बाद मैं उस ग्रुप की ओर मुखातिब हुआ ,जहाँ हममिजाज दोस्तों की जमघट थी । यहाँ अपनी-अपनी पसंद के चार-पाँच ग्रुप थे ,जहाँ वैसे तो हर विषय पर गरमागरम बहसें होती रहती थीं ,लेकिन राजनीतिक बहसें कुछ ज्यादा हीं होतीं थीं । यहीं पहलीबार जितू,मनोज और गिरीश से रू-ब-रू हुआ था। गिरीश की बेतकल्लुफी का मुझपर ऐसा रंग जमा कि मैं उस पहली मुलाकात के बाद ही उसका मुरीद होते चला गया । उसकी वर्सेटाइल शख्सियत में बेफिक्री और जिंदादिली कुछ इसकदर घुलमिल-सी गयी थीं कि मैंने उसे कभी संजीदा और गमगीन होते नहीं देखा। उसके स्वभाव में एक किस्म की फकिराना मस्ती थी जिसके आकर्षण से किसी का भी बच पाना मुश्किल था। छरहरी और दुबली काया में एक नाजुक सा दिल था जो अपनी धुन और लय में मस्त धड़कता था । और याद्दाश्त इतनी हैरतअंगेज कि रेणु की 'परती परिकथा' से लेकर राही मासुम...