...

15 views

"प्यार से इश्क़ तक का सफर" - Chapter 2
प्यार एक खुले आसमान के जैसा है, जिस तक जितना पहुंचने की कोशिश करो, वो उतना ही ऊँचा उठता जाता है। कभी मैंने भी इस गगन-नुमा प्यार को हाथों से छूने की बेतहासा कोशिश की थी।

उन दिनों, मैं अपने प्यार का इज़हार करके, उसे पा के दुनिया जितने 'जितनी' ख़ुशी में था। कहने को तो ये दुनिया बहुत बड़ी है, पर मेरी दुनिया उस लड़की पर जा सिमटी थी, जिससे मुझे अभी-अभी प्यार हुआ था। मैं हर सुबह जब ट्यूशन जाता उससे मिलता, तो मेरी बस एक ही तमन्ना होती के मैं बस उस लड़की में ही उलझा रहूं, जो मेरी दुनिया है। ये कैसा उत्साह था मेरे अंदर मैं नहीं जानता।

उसे हर रोज़ मैं थोड़ा-थोड़ा समझने की कोशिश करता, मैं जब भी उसके हर एक पन्ने को पलट कर देखता, तो मुझे उसे जानने की इतनी ही जिज्ञासा होती, जितनी एक नयी कहानी को पढ़ कर होती है। कभी किसी पन्ने पर हसी की गूंज सुनाई पड़ती, तो कभी किसी पर सन्नाटे का मातम। हर किसी के अपने अतीत होते है।

वक़्त गुजरता गया, एक खूबसुरत सा रिश्ता अब खुशनुमा होने लगा था। दो अनजाने से अजनबी अब हमसफ़र बनने के ख्वाब बुन रहे थे। प्यार कैसे इश्क़ बन जाता है, ये मैंने उससे मिल कर जाना। सच कहूं तो, मुझे ये तो मालुम था के मैं उससे प्यार करता हूँ, पर मैंने प्यार 'महसूस' करना तब शुरू किया, जब मैंने उसे करीब से जाना। इतने बड़े शहर में कोई मिलता है और वो आपको अंदर तक झकझोर देता है, ये बस प्यार ही कर सकता है। वरना यूँ तो हर रोज़ हज़ारों इंसान मिलते है शहर में।

हम दोनों जो कभी एक दूसरे के नाम से बे-खबर थे, अब हमे हमारे सीने में धड़कती हर एक धड़कन की खबर थी। आलम ये था, हमारे दरमियाँ के चेहरे से हम हाल जान लिया करते थे। जहा एक-तरफ हमें सुबह मिलने की बेताबी रहती, वही दूसरी-तरफ हमे शाम ढलने का इंतज़ार होता। उस पल मैं बहुत उदास हुआ करता, जब ट्यूशन से घर जाते वक़्त उसे बाय बोलना पड़ता था।

दरअसल, हम एक दूसरे में इतने उलझे थे के हमारी बारवी कब निकल गयी, हमे खबर तक ना हुई। अब वो ट्यूशन के बहाने मिलने वाली सुबह, शाम बन कर ढलने वाली थी। इस बात का हमे इल्म और गम दोनों था। हम जानते थे के हमारा एक दूसरे के बगैर रहना मुश्किल होगा। वक़्त हमारे मुट्ठी से रेत सा निकलता जा रहा था, हम इतने विवश थे के हम दोनों के हाथ इस रेत-नुमा वक़्त को रोकने में असफल थे।

मैं वो दिन अब तक ना भूल सका, जब हमारे मिलने के मौसम पतझर बन कर झरने वाले थे। वो दिन हमारे बारवी के बिदाई (फेयरवेल) का था, सभी एक-दूसरे से मिल रहे थे, एक दूसरे के नंबर ले रहे थे, फिर मिलने के वादे कर रहे थे और मैं एक कोने में कुर्सी पर बैठा उसे बस देखता जा रहा था। मैं ये नहीं चाहता था के मैं ये आखरी पल खो दूँ उसे जी भर के देखने का। उस रोज़ एक लड़का पहली बार रोया था किसी लड़की के लिए।

हमारे दरमियाँ दूरिया बढ़ने लगी थी। वक़्त खामोशी से बहता जा रहा था, उसे इस बात का एहसास तक न था के उसके यूँ बहने से एक सफर के दो मुशाफिर दो अलग-अलग किनारो पर बट जाएंगे, ये वक़्त भी निकल गया अब हमारे मिलने का कोई जरिया न रहा।

एक फ़ोन ही था सहारा हमारा, एक दूसरे तक बात पहुंचाने को। हम घंटो बातें किया करते थे पर कभी दुबारा वो सुकून ना मिल पाया, जो हर सुबह एक दूसरे से मिलकर होती थी।


"मिलकर हस्ते थे
बिछड़ कर रोते थे
एक फ़ोन ही था बिच हमारे
जब यार जुदा हम होते थे"

© Roshan Rajveer