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प्रीत की पूर्णिमा....
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कहानी के पिछले भाग में मंगल और श्री का इंतज़ार, एक नये ..सावन की पूर्णिमा के इंतज़ार को जन्म दे जाती है... अब आगे...मंगल का माधव धर्म और श्री के मन की व्यथा से..उनके ह्रदय मन में प्रीत की पूर्णिमा अपने चरम पर थी तभी....

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मंगल नगर की सुरक्षा हेतु कुछ दिनों के लिए श्री से दूर होकर नगर भ्रमण पर निकले थे.....
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इसी बीच श्री को किसी अजनबी का एक संदेशा (message) मिलता है जिसमें लिखा होता है की
"तुम मेरी आदत हो, क्या हर पल तुम मेरी आदत बनेगी...."?

श्री मंगल के आने का इंतज़ार और पत्र को पढ़ कर , मन की बेचैनी और दोनों के असहनीय हृदय पीड़ा को सहन नहीं कर पा रही थी....

अगले दिन संध्या पहर में मंगल नगर भ्रमण से लौटकर श्री के पास आते हैं और श्री मंगल को देखकर बहुत ही प्रसन्न होती है....

कुछ पल बाद श्री ने मंगल से पत्र के बारे में बताती है और तंज कसती है कि मंगल मुझे अपने से कभी दूर मत करना नहीं तो मैं किसी और की आदत बन जाऊँगी...

श्री बोली:- इतना देर क्यूँ हुई आने में...हजारों सवाल और पत्र के बारे में सुनकर मंगल मन ही मन मुस्कुराता है बहुत गुस्से में होने का दिखावा करता है और श्री को दूर जाने को बोलता है....

मंगल पत्र भेजने वाले उस अजनबी का पता लगा पत्र देखते ही लगा लिया था! क्योंकि वह पत्र मंगल ने ही नगर भ्रमण जाने से पहले बिना नाम पता लिखे श्री के पास गुप्त तरीके से भिजवाया था.....
मंगल मन ही मन मुस्कुरा कर हंसने लगता है और जब श्री को यह बात पता चलती है तो श्री बहुत ही गुस्से में होती है और मंगल से नोकझोंक करती है....

दोनों आपस में इस क़दर नाराज़ हो जाते हैं कि कुछ पल के लिए बातें बंद हो जाती है....

इसी दौरान मंगल को बाढ़ से अपने नगर के एक गांव को डूबने से बचाने के लिए संदेशा मिलता है.....

तभी श्री से बिना मिले मंगल अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ उस गांव की ओर चल पड़ता है....

श्री और मंगल का...