वो रास्ता
आषाढ़ की दुपहरिया में वो रास्ता और भी सुंदर लगने लगता था।
दोनों ओर जहाँ हरे-भरे पेड़ के पेड़ कतार में लगे थे जिससे लगी एक हल्की घुमावदार सड़क ऊपर उस छोटे से कस्बे को जाती थी वहीँ दूसरी तरफ़ एक अपेक्षाकृत बेहद कम गहरायी वाली ढलान थी जिसके उस तरफ़ पूरी घाटी थी। अगर कोई उस रास्ते से गुज़रता तो उसे ऊपर का कस्बा और ढलान के उस तरफ़ की वो बसावट लिए घाटी दोनों की दोनों साफ़-साफ़ नज़र आतीं थीं और यकीनन ये बहुत मनोरम होता था। कतार में लगे पेड़ कई प्रजातियों के थे जिसमें से कई पर बेहद ख़ूबसूरत हल्के गुलाबी, पीले, लाल, केसरिया और नीले रंग के फूल वसंत, सावन और पतझड़ होने से पहले लगते थे जिसमें अधिकतर लाल और केसरिया होते थे जिसे दूर से देखने पर जंगल में आग लगी है ऐसा भरम हो जाता था अक्सर।
आषाढ़ के शुरू होते ही सावन बिना आए ही अपनी उपस्थिति तेज़ आँधी के साथ होती झमाझम बारिश से दर्ज़ करा ही देता था और आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा था।
बारिश बरस कर रुक चुकी थी पर बहुत तेज़ हवाएँ चल रहीं थीं बिल्कुल आँधी जैसी और ऐसी ठंडक का एहसास करवा रहीं थीं जो रीढ़ तक सिहरन दौड़ा दे रहीं थीं रह रहकर। ऊपर आसमान में घने काले बादल छाए थे जो भरी दुपहरिया में संझलौके का भ्रम पैदा कर रहे थे। अगर कोई घड़ी देखे बिना इस समय को संझलौका समझ भी लेता...