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रेत की दीवार
कल रात मैंने एक सपना देखा.. इतना ज़्यादा कुछ याद नहीं है बस सपना ख़राब था, बहुत ख़राब।
मैंने देखा कि मेरी आवाज़ बदल गई है। बहुत अजीब और डरावनी हो गई है। मैं बोल रही हूँ तो कानों पर हाथ रख लेती हूँ, मुझे मेरी ही आवाज़ से डर लग रहा था और फिर अचानक मेरे पैर और सिर तो बिस्तर पर हैं पर शरीर का बाकी बचा हुआ हिस्सा ऊपर की ओर उठता जा रहा है। ऐसा ही बहुत कुछ हो रहा था जिससे मुझे घुटन हो रही थी, बहुत घुटन।
मैं सपने को देखते समय नींद में खुद को यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रही थी कि "मैं ठीक हूँ और सो रही हूँ यह केवल एक सपना है।"
लेकिन सपना इतनी वास्तविकता से भरा होता है कि..
खैर नींद में ही मैं अपने तकिए के नीचे रखी माचिस को ढूंढने लगी जो मुझे नहीं मिली क्योंकि कहाँ देख रही थी पता नहीं।
मैंने मेरे गले में पहने धागे में भगवान के लॉकेट को इतनी बेसब्री से ढूंढा की वो धागा ही खुल गया और गर्दन में हल्का दर्द होने लगा। इस सब के परे सच तो यह है कि लॉकेट मैंने सबकुछ खो देने के बाद गुस्से में साल भर पहले उतार दिया था। केवल धागा रह गया था। मगर नींद में यह भी याद नहीं रहा और हमेशा की तरह डरकर उसे तलाशने लगी। हाथों से उस इंसान को छूने की कोशिश कर रही थी जो मेरे बगल में सोया ही नहीं था। यकीन मानो मैं बहुत डर गई थी।
शायद यह सब एक पल में हुआ होगा जो मुझे पता नहीं कब हुआ, कैसे हुआ। मगर इसे मैंने सपने में जिया था। तो बस इतना पता है कि मैं डर गई थी.. आँखे खोलने की कोशिश करने के बाद भी आँखें नहीं खुली और जब खुली तो सुबह हो चुकी थी। सुबह के 8:30 बज रहे थे। फिर करवटें बदलती रही। घ्यान कहीं ओर लगाने की कोशिश की, सोने की भी कोशिश की मगर नींद नहीं आई.. हाँ! आँसू ज़रूर आ गए।
तुम्हारा सुप्रभात का कोई मैसेज ना पाकर तुम्हें कॉल किया.. यह याद दिलाने की कुछ काम था तुम्हें वो कर लेना। मगर तुमने नहीं उठाया.. कॉल कट होते ही तुरन्त मुझे तुम्हारा मैसेज मिल गया था।
मैं नाराज़ नहीं थी। बस बात करना चाहती थी। मगर जब बात नहीं हो पाई तो मैं दुःखी हो गई और शाम होते-होते मैं नाराज़ हो गई।
फिर तुम्हारे पूछने पर भी चुप रही।
मैं अकसर ही अपनी किसी भी प्रकार की अच्छी या बुरी भावनाओं को किसी के सामने प्रकट करने से खुद को रोक लेती हूँ। पता नहीं मगर मेरे लिए भावनाओं को प्रकट करना, उन्हें वास्तविक रूप में कह देना.. यह बहुत मुश्किल हो जाता है।
फिर क्या फ़र्क पड़ता है की सब मुझे कितना ग़लत समझते हैं। मैं चुप ही रहती हूँ।
यकीनन मैं उस रेत की दीवार की भांति हूँ.. जो ज़रा सी ठोकर से डह जाएगी। जिसका अस्तित्व केवल एक ठोकर लगने तक है।
-रूपकीबातें
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© रूपकीबातें